महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / ध
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
नाई - नियम
(ना = न , नहीं । P03 )
नाईं ( सं ० न्याय , स्त्री ० ) = तरह , समान , रीति , तरीका ।
{नाई ( संस्कृत न्याय ) = तरीका , रीति , पद्धति , भाँति , तरह , समान । P06 }
नादानुसंधान ( सं ० , पुं ० ) = नाद की खोज , एक यौगिक क्रिया जिसमें शरीर के अन्दर अनहद ध्वनियों के बीच उस नाद की खोज की जाती है जिससे सारी सृष्टि हुई है । {नादानुसंधान ( नाद+अनुसंधान )= वह युक्ति जिसके द्वारा अन्दर में होनेवाली विविध असंख्य ध्वनियों के बीच आदिनाद की खोज की जाती है । P08 }
नाना ( सं ० , वि ० ) = अनेक प्रकार के , अनेक ।
नाम ( सं ० , पुं ० ) = वह वर्णात्मक शब्द जिसके द्वारा किसी को पुकारा जाए या जाना जाए ।
नामकरण ( सं ० , पुं ० ) = किसी का नाम रखने की क्रिया ।( नामकरण= नाम रखने की क्रिया । P08 )
नाम - भजन ( सं ० , पुं ० ) = किन्हीं इष्ट के वर्णात्मक नाम के जपने की भक्ति , परमात्मा के ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान करने की भक्ति , नादानुसंधान , सुरत - शब्दयोग ।
नाम - रूप ( सं ० , पुं ० ) = नाम रूप आदि गुणोंवाला पदार्थ , मायिक पदार्थ , नाम और रूप ।
{नाम-रूप = पदार्थ के नाम , रूप ( रंग और आकृति ) , गंध , स्पर्श , शब्द , स्वाद , अन्य कोई गुण , माप - तौल , संख्या , विस्तार ( लम्बाई - चौड़ाई - मुटाई वा गहराई ) आदि । P01 }
नामरूपातीत ( सं ० , वि ० ) = नाम और रूप से विहीन ( पुं० ) परमात्मा । ( परमात्मा का कोई भी वर्णात्मक नाम उसका वास्तविक नाम नहीं है और परमात्मा का स्वरूप स्थूल आँखों तथा दिव्य दृष्टि से भी देखा नहीं जा सकता । परमात्मा का वास्तविक नाम ध्वन्यात्मक सारशब्द है और परमात्मा का स्वरूप आत्मदृष्टि से देखा जाता है ।)
{नामरूपातीत ( नाम + रूप + अतीत ) = नामरूप - विहीन , कोई वर्णात्मक नाम जिसका सच्चा नाम नहीं है और जिसमें रूप , रस , गंध , स्पर्श तथा शब्द गुणों में से कोई गुण नहीं है , जिसमें कोई विशेषता या लक्षण नहीं है , जिसका विस्तार , माप - तौल या संख्या नहीं बतायी जा सके । P06 }
(नामि = नाम में । नानक वाणी 53 )
निःशब्द ( सं ० , वि ० ) = शब्द रहित । ( पुं ० ) शब्द - विहीनता , परमात्मा , शब्दातीत पद ।
निःसंदेह ( सं ० , वि ० ) = संदेह - रहित , शंका - रहित । ( क्रि ० वि ० ) शंका - विहीन रूप से ।
निकटवर्त्ती ( सं ० वि ० ) = निकट रहनेवाला ।
(निकेतन = घर , खजाना , भंडार । P04 )
निगम ( सं ० , पुं ० ) = वेद ।
(निचाय्य = निश्चय वा दृढ़। MS01-1 )
निज ( सं ० , वि ० ) = अपना ।
निज आत्मस्वरूप ( सं ० , पुं ० ) अपना वास्तविक या मूल स्वरूप ।
(निज घर = अपना घर , आदि घर , मूल घर , परमात्म पद । P09 )
निज नाम ( सं ० , पुं ० ) = अपना वास्तविक नाम , किसी का अपना वास्तविक नाम, जिससे उसकी पहचान हो जाए ।
( निजपन = अपनापन , अपनत्व , ममत्व , आसक्ति । P09 )
निज स्वरूप ( सं ० , पुं ० ) = अपना वास्तविक रूप ।
नित ( सं ० , क्रि ० वि ० ) = सदा , हमेशा , प्रतिदिन , रोज ।
नित्य ( सं ० , वि ० ) = अविनाशी । ( क्रि ० वि ० ) नित , प्रत्येक दिन ।
(नित्य = प्रतिदिन । P04 )
(निदिध्यास = निदिध्यासन , मनन ज्ञान को व्यवहार में उतारना , मनन किये हुए विषय को प्रत्यक्ष करने के लिए बारंबार उचित प्रयत्न करना , मनन किये हुए विषय का पुनः - पुनः चिन्तन - स्मरण - ध्यान करना । P04 )
(निधि = खजाना, भंडार । P14 )
निम्नलिखित ( सं ० , वि ० ) = नीचे लिखा हुआ ।
नियम ( सं ० , पुं ० ) = अष्टांग योग का दूसरा अंग जिसमें शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय और ईश्वर- पुरानी धन ईश्वर में चित्र लगाना आते हैं।
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