संतमत-दर्शन ब्याख्या भाग 1 ग
प्रकृति की उत्पत्ति कैसे हुई how nature originated
प्रभु प्रेमियों ! संतमत दर्शन के इस व्याख्या भाग में निम्नलिखित विषयों पर चर्चा किया गया है - साम्यावस्थाधारिणी क्या है? पिण्ड - ब्रह्मांड कैसे बनते हैं, पहले युगल प्रकृतियां बनी या आदिनाद? शब्द कैसे गमन करता है? क्रियात्मक कौन-सा गुण है? व्यष्टि चेतन क्या है? सत् और अक्षर किसे कहते हैं? आइये व्याख्या के आगला लेख पढ़े-
' सत्संग - सुधा , प्रथम भाग ' के पृ० ९८ के ' मुक्ति और उसकी साधना ' शीर्षक प्रवचन में गुरुदेव कहते हैं कि “ मैं एक हूँ , अनेक हो जाऊँ- जब ईश्वर की यह मौज होती है , तब उस प्रकृति में उनकी मौजरूपी वेग से उसके जिस भाग में ठोकर लगी , उस भाग में स्थित य गुणों में से किसी में उत्कर्ष तथा किसी में अपकर्ष हुआ और वह भाग कंपित हो गया । यही कम्पित भाग कारणरूप है , जिससे अनेक पिण्ड - ब्रह्मांड बनते हैं."
यहाँ ' प्रकृति ' शब्द जड़ात्मिका मूल प्रकृति के लिए ही प्रयुक्त हुआ है ; क्योंकि वही त्रय गुण - सहित है । इस उद्धरण से यह साफ तौर पर जाहिर होता है कि पहले मूल प्रकृति बनती है और तब परमात्मा की मौज से उसपर ठोकर लगती है ; परन्तु गुरुदेव ' सत्संग - योग ' के चतुर्थ भाग के पाराग्राफ ३२ में लिखते हैं कि “ युगल प्रकृतियों के बनने के पूर्व आदिनाद अवश्य प्रकट हुआ । ” तब यह कहना पड़ता है कि पहले परमात्मा से उत्पन्न आदिनाद से दोनों प्रकृतियाँ बनती हैं , फिर आदिनाद या मौज से मूल प्रकृति के किसी भाग में ठोकर लगने पर रचना होती है । शब्द की चोट किसी वस्तु पर अवश्य पड़ती है । जोर से बादल के गरजने पर या बगल में नगाड़े आदि वाद्य यंत्रों के बजने पर हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि हमारे हृदय पर आघात पहुँच रहा है । यह आघात शब्द के ही द्वारा होता है और शब्द के काँपे बिना यह आघात नहीं हो सकता । कंपन के कारण ही शब्द एक जगह से दूसरी जगह गमन करता है ।
ब्रह्मांड |
' सत्संग - सुधा , प्रथम भाग ' के ऊपर लिखे उद्धरण से यह भी स्पष्ट होता है कि मूल प्रकृति के किसी भाग विशेष में मौज की ठोकर लगने से पिंड और ब्रह्मांड - दोनों बनते हैं । ' सत्संग - योग ' के चतुर्थ भाग के पाराग्राफ ३८ में यह कहा गया है कि मूल प्रकृति के किसी भाग में जब गुणों का उत्कर्ष होता है , तब उस भाग में सम अवस्था नहीं रह जाती , उसी असम अवस्था से विश्व ब्रह्मांडों की रचना होती है । इसमें यह नहीं बतलाया गया है कि गुणों का उत्कर्ष क्यों होता है । यह भी नहीं बतलाया गया है कि किसी गुण में अपकर्ष भी होता है और मूल प्रकृति के भाग विशेष में गुणोत्कर्ष होने से पिंड भी बनता है ।
ऊपर में उद्धृत गुरुदेव के वचनों में मेल बिठाने के लिए ऐसा कह सकते हैं कि परमात्मा से उत्पन्न आदिनाद से परा और अपरा - दोनों प्रकृतियाँ बनती हैं । पुनः आदिनाद से अपरा प्रकृति ( जड़ात्मिका मूल प्रकृति ) के किसी भाग विशेष में ठोकर लगती है , जिससे पहले - पहल रजोगुण में उत्कर्ष होता है ; क्योंकि रजोगुण ही क्रियात्मक है । रजोगुण में उत्कर्ष होने से अन्य दो सत्त्व और तम गुणों में अपकर्ष का होना स्वाभाविक ही है । जड़ात्मिका मूल प्रकृति के कंपित भाग से विश्व - ब्रह्मांडों की रचना होती है ।
विश्व - ब्रह्मांडों में केवल समष्टि प्राण ( आदिनाद ) व्याप्त है और पिंड में आदिनाद तथा परा प्रकृति का भी अंश व्याप्त है । पिंड में व्याप्त परा प्रकृति का अंश सुरत या व्यष्टि चेतन कहलाता है । व्यष्टि चेतन के कारण प्राणियों के पिंड जीवित रहते हैं । पिण्ड से व्यष्टि चेतन के निकल जाने पर पिंड मर जाता है अर्थात् निष्क्रिय हो जाता है ; परन्तु वह पिंड विघटित होकर भी पाँच तत्त्वों के रूप में आदिनाद के कारण अपना अस्तित्व कायम रखता है ।
पिंड बनने के लिए परा और अपरा - दोनों प्रकृतियों का संयोग होना आवश्यक है । यह संयोग आदिनाद के द्वारा ही कराया जाना संभव है । ' सत्संग - योग ' के चतुर्थ भाग के पाराग्राफ २० में गुरुदेव ने परा और अपरा- दोनों प्रकृतियों से पिंड बनने की बात लिखी ही है ।
सामान्यतः नष्ट नहीं होनेवाले पदार्थ को अक्षर तथा सत् कहते हैं । नाना रूपों में परिवर्त्तित नहीं होते रहने के कारण ही परा प्रकृति को गुरुदेव ने अक्षर और सत् कहा है , यद्यपि परा प्रकृति भी कभी प्रभु की मौज से प्रभु में विलीन हो जाएगी । किसी वस्तु का परिवर्त्तित होना भी उसका नाश होना कहलाता है । परा प्रकृति परिवर्त्तित नहीं होती , इसीलिए वह सत् और अक्षर कहलाती है । परमात्मा और परा प्रकृति - दोनों एकरस रहते हैं , उनमें परिवर्त्तन नहीं होता ; परन्तु परमात्मा कभी भी नष्ट न होनेवाला और गतिहीन है , जबकि परा प्रकृति विनाशशील तथा गतिमान् है । महाभारत के शान्तिपर्व ( उत्तरार्ध , मोक्ष - धर्म ) , अध्याय १०४ में भी परा प्रकृति को रूपान्तर - दशा से रहित बतलाया गया है । गीता , अ ० १५ , श्लोक १६ में परा प्रकृति को ही अक्षर कहा गया है ।
परा प्रकृति अर्थात् चेतन प्रकृति सदा एकरस बनी रहती है । उसमें कभी किसी प्रकार का परिवर्त्तन नहीं होता । इसी परा प्रकृति का कुछ अंश हमारे शरीर और अंत : करण के साथ घुल - मिल गया है , जिसे व्यष्टि चेतन या सुरत कहते हैं । इसी व्यष्टि चेतन के कारण हमारी इन्द्रियाँ बाहरी विषयों का ज्ञान करती हैं । हमारा पांचभौतिक शरीर प्रति क्षण बदलता रहता है । इसमें क्रमश : बाल्य , यौवन और वार्द्धक्य अवस्थाएँ आती हैं ; परन्तु शरीर के अंदर स्थित चेतन तत्त्व ज्यों - का - त्यों रहता है । जब हमारी आँखों में विकार आ जाता है , तो संसार की वस्तुएँ हमें भिन्न रूपों में दिखलायी पड़ने लग जाती हैं । इसी प्रकार यदि हमारे व्यष्टि चेतन में भी विकार होता रहता , तो इन्द्रियों के दुरुस्त रहने पर भी संसार की वस्तुएँ भिन्न रूपों में दिखलायी पड़ने लगतीं , परन्तु ऐसा नहीं होता । नेत्र इन्द्रिय के ठीक रहने पर हम सदैव कौओं को काला ही देखते हैं । भाँग , शराब आदि नशीले पदार्थों के सेवन से उत्पन्न मानसिक स्थिति में हम जो वस्तुओं को भिन्न रूपों में देखते हैं , वह इन्द्रियों के भ्रमित हो जाने के कारण , न कि शरीरस्थ चेतन तत्त्व के बदल जाने के कारण । इसलिए मानना पड़ता है कि चेतन तत्त्व में विकृति नहीं आती ।
चेतन प्रकृति को ही परा प्रकृति कहते हैं । ' परा ' विशेषण है , जो स्त्रीलिंग शब्द के पहले लगता है । ' प्रकृति ' स्त्रीलिंग है , इसलिए इसके पहले ' परा ' शब्द लगा है । पुल्लिंग शब्द के पहले ' पर ' लगेगा । ' परा ' का अर्थ है- जो श्रेष्ठ हो , जो ऊपर हो । चेतन प्रकृति जड़ प्रकृति से श्रेष्ठ तथा ऊपर और परिवर्त्तन - रहित है , इसमें ज्ञान करने की शक्ति है तथा यह आनंदरूपा है । इसमें क्रिया करने की भी शक्ति है । इसे हम देख नहीं पाते ; परन्तु इसके अस्तित्व का अनुमान हम इसकी क्रियाओं को देखकर करते हैं । जबतक शरीर में चेतन रहता है , तभी तक वह सचेष्ट रहता है । चेतन के निकल जाने पर वह निश्चेष्ट हो जाता है ।
जड़ प्रकृति को ही अपरा प्रकृति कहते हैं । ' क्षर ' और ' असत् ' का अर्थ है- नष्ट होनेवाला । नाना रूपों में परिवर्तित होते रहने के कारण ही अपरा प्रकृति को गुरुदेव ने क्षर और असत् कहा है । जड़ प्रकृति भी कभी प्रभु की मौज से नष्ट हो जाएगी । गीता , अ ० १५ में सब नाशवान् भूतों को ' क्षर ' कहा गया है ।
जड़ प्रकृति आकाश , वायु , अग्नि , जल , मिट्टी , मन , बुद्धि और अहंकार - इन आठ प्रकारों में विभाजित है । ( देखें - गीता , अ ० ७ ) जड़ प्रकृति सदैव नाना रूपों में बदलती रहती है । हम देखते हैं कि जब किसी वृक्ष से चेतन निकल जाता है , तो वह सूख जाता है । यदि उसे जलाते हैं , तो वह राख में बदल जाता है । लकड़ी जमीन के नीचे बहुत दिनों तक पड़ी रह जाने से कोयले में बदल जाती है । वाष्प ठंढा होने पर जल और जल ठंढा होने पर बर्फ बन जाता है । एक ऊर्जा दूसरी ऊर्जा में बदल जाया करती है । विद्युत् ऊर्जा ताप ऊर्जा में और ताप ऊर्जा प्रकाश ऊर्जा में बदल जाती है । शरीर से चेतन तत्त्व के निकल जाने पर शरीर विकृत हो जाता है ।
हमारे मन , बुद्धि और अहंकार की भी एक - सी अवस्था नहीं रह पाती , इनमें भी परिवर्त्तन होता रहता है । मन में तरह - तरह की तरंगें उठती रहती हैं । कभी मन पाप की ओर झुक जाता है , तो कभी पुण्य की ओर । बुद्धि भी कभी सत्य को असत्य तथा कभी असत्य को सत्य और कभी अनुचित को उचित तथा कभी उचित को अनुचित मानती है । अहंकार के परिवर्तित होते रहने के कारण हम अपने को कभी निर्धन , तो कभी धनवान् , कभी बुद्धिमान् , तो कभी बुद्धिहीन और कभी शरीर , तो कभी आत्मा मानने लगते हैं । यह देखकर हमें मानना पड़ता है कि जड़ प्रकृति नाना रूपों में बदलती रहती है ।...
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