संतमत-दर्शन ब्याख्या भाग 1 घ
बाबा लालदास जी और गुरुदेव |
सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के कार्य
व्याख्या भाग 1 घ
हमारे मन , बुद्धि और अहंकार की भी एक - सी अवस्था नहीं रह पाती , इनमें भी परिवर्त्तन होता रहता है । मन में तरह - तरह की तरंगें उठती रहती हैं । कभी मन पाप की ओर झुक जाता है , तो कभी पुण्य की ओर । बुद्धि भी कभी सत्य को असत्य तथा कभी असत्य को सत्य और कभी अनुचित को उचित तथा कभी उचित को अनुचित मानती है । अहंकार के परिवर्तित होते रहने के कारण हम अपने को कभी निर्धन , तो कभी धनवान् , कभी बुद्धिमान् , तो कभी बुद्धिहीन और कभी शरीर , तो कभी आत्मा मानने लगते हैं । यह देखकर हमें मानना पड़ता है कि जड़ प्रकृति नाना रूपों में बदलती रहती है ।
गीता , अ ० ७ , श्लोक ४-५ में अपरा तथा परा- दो प्रकृतियों का वर्णन है और कहा गया है कि इन्हीं दोनों प्रकृतियों से सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं ।
संसार में हमें किसी भी पदार्थ में तीन प्रकार की शक्तियों के काम करने का अनुमान होता है । कोई शक्ति किसी पदार्थ को उत्पन्न करती है , दूसरी शक्ति उसका पोषण करती है और तीसरी शक्ति उसका विनाश कर देती है । इन शक्तियों को हम क्रमशः रजोगुण , सत्त्वगुण और तमोगुण कहते हैं । यहाँ ' गुण ' का अर्थ प्रकृति का स्वभाव है । इन गुणों को हम देख नहीं पाते । इनके कार्यों से इनके होने का अनुमान होता है । हमारे शरीर की उत्पत्ति में रजोगुण कारण है और उसी के द्वारा शरीर बढ़ता है । सत्त्वगुण उसका पोषण करते हुए उसका अस्तित्व बनाये रखता है । तमोगुण के कारण शरीर बदलता रहता है और अंत में नष्ट हो जाता है । में एक वृक्ष उत्पन्न होता है , कुछ काल तक ठहरता है और अन्त में सूख जाता है । किसी पदार्थ का उत्पन्न होना , कुछ काल ठहरना और अन्त में नष्ट हो जाना- यह क्रमशः रजोगुण , सत्त्वगुण और तमोगुण के कारण होता है । इसीलिए रजोगुण को उत्पादक शक्ति , सत्त्वगुण को पालक शक्ति और तमोगुण को विनाशक शक्ति कहते हैं ।
ये तीनों गुण किसी वस्तु में एक ही साथ काम करते हैं ; परन्तु हाँ , कभी कोई प्रबल हो उठता है , तो कभी कोई । एक के प्रबल होने पर अन्य दो दबे रहते हैं । सत्त्वगुण का रंग उजला , रजोगुण का रंग पीला और तमोगुण का रंग काला बतलाया गया है ।
चेतन प्रकृति परिवर्त्तन - रहित है । इसलिए ये तीनों गुण उसमें नहीं माने जा सकते । यदि चेतन प्रकृति में भी ये तीन गुण माने जाएँ , तो वह परिवर्तनशील मानी जाएगी ; क्योंकि किसी वस्तु में परिवर्तन इन्हीं तीनों गुणों के कारण होता है । चेतन प्रकृति निर्गुण है । इस प्रकार हम देखते हैं कि परा , सत् , अक्षर और निर्गुण- ये सब विशेषण चेतन प्रकृति के हैं ।
आदिनाद और परमात्मा भी त्रय गुणों से रहित होने के कारण निर्गुण हैं ; परन्तु पद्य में ' निर्गुण ' शब्द परमात्मा के लिए प्रयुक्त नहीं है ।
जड़ प्रकृति परिवर्त्तनशील है और परिवर्त्तन त्रय गुणों के कारण होता है । इसलिए जड़ प्रकृति को सत्त्व , रज तथा तम - इन तीनों गुणों से युक्त मानना पड़ता है । इसी कारण इसको सगुण कहते हैं । अतएव क्षर , असत् , अपरा और सगुण विशेषण जड़ प्रकृति के हैं ।
जड़ प्रकृति सगुण है । इसलिए उससे बने हुए जड़ात्मक मंडल भी सगुण ही हैं ।
जड़ प्रकृति से चार मंडल बनते हैं - स्थूल , सूक्ष्म , कारण और महाकारण । चेतन प्रकृति - मंडल या कैवल्य मंडल को जोड़ने से सृष्टि के पाँच मंडल होते हैं - स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य । इन पाँचो मंडलों से जैसे विश्व - ब्रह्मांड भरपूर हैं , वैसे ही इन पाँचो मंडलों से शरीर भी परिपूर्ण है । इसीलिए शरीर भी पाँच माने गये हैं । स्थूल , सूक्ष्म , कारण और महाकारण जड़ शरीर हैं और कैवल्य चेतन शरीर ।
शरीर को क्षेत्र भी कहते हैं । गीता , अ ० १३ में पाँच स्थूल तत्त्व ( मिट्टी , जल , अग्नि , वायु तथा आकाश ) , पाँच सूक्ष्म तत्त्व ( गंध , रस , रूप , स्पर्श तथा शब्द ) , पाँच कर्मेन्द्रियाँ ( हाथ , पैर , मुँह , गुदा तथा लिंग ) , पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ( आँख , कान , नाक , जिह्वा तथा त्वचा ) , मन , अहंकार , बुद्धि , जड़ात्मिका मूल प्रकृति , चेतना , संघात ( कहे गये का संघ - रूप ) , धृति ( धारण करने की शक्ति ) , इच्छा , द्वेष , सुख और दुःख- इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को सविकार क्षेत्र कहते हैं । अन्तिम चार तत्त्व ही क्षेत्र के विकार हैं । गीता के इस क्षेत्र के अन्दर स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकरण और कैवल्य- ये पाँचो शरीर आ जाते हैं ।
' क्षेत्र ' का अर्थ खेत होता है । किसान खेत में जैसा बीज बोता है , वैसी ही फसल काटता है । इस शरीररूपी खेत का किसान जीवात्मा है । वह इस खेत में यदि अच्छे कर्मरूपी बीज बोता है , तो वह उसका मीठा फल पाता है और यदि वह बुरे कर्मरूपी बीज बोता है , तो उसका फल कडुआ पाता है ।
जिस शरीर को हम आँखों से देख पाते हैं , वह हमारा स्थूल शरीर है । यह पाँच स्थूल तत्त्वों - मिट्टी , जल , अग्नि , आकाश और वायु से बना हुआ है । इसमें नौ द्वार ( आँख , कान , नाक के दो - दो छिद्र और मुँह , लिंग तथा गुदा का एक - एक छिद्र ) हैं । इसमें बाल्य , यौवन और बुढ़ापा अवस्थाएँ आती हैं । जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं से यह संयुक्त है । इसमें रोग लगते हैं । यह शरीर सात धातुओं से भी बना हुआ है । वे सात धातुएँ हैं - रस , रक्त , मांस , मेद , अस्थि , मज्जा और वीर्य । खाये हुए अन्न के साररूप रस से रक्त बनता है । रक्त से मांस , मांस से मेद ( चर्बी ) , मेद से अस्थि ( हड्डी ) , अस्थि से मज्जा और मज्जे से वीर्य बनता है । इस स्थूल शरीर से जब चेतन तत्त्व निकल जाता है , तब यह स्थूल शरीर मृतक कहलाने लगता है और इसका संगठन बिगड़ जाता है ।
स्थूल शरीर के अन्दर सूक्ष्म शरीर है । सूक्ष्म शरीर को वासनामय लिंग शरीर या केवल लिंग शरीर भी कहते हैं । सावित्री के पति सत्यवान का लिंग शरीर ही स्थूल शरीर से निकालकर यमराज लिये जा रहे थे । गीता , अ ० १५ , श्लोक ७-८ में कहा गया है कि जैसे वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके उसे दूसरी जगह ले जाती है , उसी प्रकार जीवात्मा जब पहले शरीर को छोड़ता है , तो उससे मन - सहित पाँच ज्ञानेन्द्रियों को खींचकर दूसरे शरीर में ले जाता है । गीता और सांख्य दर्शन में तीन ही अन्तःकरण माने गये हैं- मन , बुद्धि और अहंकार , जबकि वेदान्त शास्त्र चित्त को भी चौथा अन्तःकरण मानता है । गीता के पन्द्रहवें अध्याय में जो कहा गया है कि जीवात्मा दूसरे शरीर में एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों को साथ लेकर जाता है , यहाँ मन में बुद्धि , अहंकार और चित्त का भी अन्तर्भाव मान लेना चाहिए ।
एक मत के अनुसार , पाँच कर्मेन्द्रियों , पाँच ज्ञानेन्द्रियों , चार अन्तःकरणों और पाँच तन्मात्राओं ( शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध ) का समूह सूक्ष्म शरीर है । सूक्ष्म शरीर में मानसिक दुःख का अनुभव होता है ।
सूक्ष्म शरीर के अंदर कारण शरीर है । कारण शरीर सूक्ष्म शरीर तथा स्थूल शरीर का कारण - रूप है । कोई बीज होता है , उससे अंकुर फूटता है । उस अंकुर से फिर वृक्ष होता है । वृक्ष को स्थूल , अंकुर को सूक्ष्म और बीज को कारण मानना चाहिए । कारण शरीर के अंदर महाकारण शरीर है और महाकारण के अंदर कैवल्य शरीर ।
मृत्यु होने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है ; परन्तु सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य शरीर रह जाते हैं , जिनके कारण जीवात्मा पुनः स्थूल शरीर धारण कर लेता है ; जैसे वृक्ष के कट जाने पर भी जड़ के मजबूत रहने पर पुनः वृक्ष हो जाता है ।
जड़ के चार शरीरों के होने की युक्ति गुरुदेव इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं- सूक्ष्म के बिना स्थूल नहीं हो सकता । घर बनाने के पहले मन में या कागज पर घर का सूक्ष्म रूप बनाते हैं , फिर घर का स्थूल रूप खड़ा करते हैं । कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं होता । इसलिए सूक्ष्म भी कारण के बिना नहीं हो सकता । कारण भी एक ही हो , तब तो ! अनेक कारण हैं । इस प्रकार सब कारणों को एकत्र करके देखें , तो वही महाकारण कहलाता है । संसार में कारण उत्पन्न होते रहते हैं और घर बनते जाते हैं । एक बरतन के बनने में जितनी मिट्टी लगती है , वह ' एक बरतन का कारण है । सब बरतनों का कारण वहीं नहीं है । एक बरतन के कारणरूप मिट्टी से असंख्य बरतनों के कारण की मिट्टी , जो कार्यरूप में नहीं बनी है , कितनी अधिक है , जानने में नहीं आती । यही महाकारण का स्वरूप है ।
गीता , अ ० ११ , श्लोक ३७ में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा है कि सत् तथा असत् तुम्हीं हो और इन दोनों से परे जो अक्षर है , वह भी तुम्हीं हो । गीता , अ ० १५ , श्लोक १७ में भी परमात्मा को क्षर - अक्षर से परे बतलाया गया है । . . .
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