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LS02 भाग 1 ड. || क्या है अन्नमय प्राणमय मनोमय विज्ञानमय और आनंदमय पंचकोष और इसके कार्य

संतमत-दर्शन ब्याख्या भाग 1 ड. 

     प्रभु प्रेमियों ! संतमत में ईश्वर की बड़ी महिमा गायी गई है. ईश्वर स्वरूप की ऐसी विशेषता है कि उसको एक बार जान लेने से मनुष्य को बार-बार मनुष्य का ही शरीर प्राप्त होता रहता है, जब तक कि जानकार को मोक्ष नहीं मिल जाता . इसलिए ईश्वर स्वरूप को अच्छी तरह से इसे पुस्तक में समझाया गया है. आईए इसी सीरीज के पांचवे भाग का पाठ करें. इसके पहले पाठ के व्याख्याकार के दर्शन करें. 

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बाबा लालदास जी और गुरुदेव
बाबा लालदास जी और गुरुदेव

पंचकोष की अवधारणा का वर्णन

     प्रभु प्रेमियों ! संतमत दर्शन के इस व्याख्या भाग में निम्नलिखित विषयों पर चर्चा किया गया है - सापेक्ष शब्द क्या हैं ? परमात्मा को क्या कह सकते हैं? स्थूल सूक्ष्म कारण और महाकारण का परिचय, अन्नमय प्राणमय मनोमय विज्ञानमय और आनंदमय -इन पाँच कोषों का परिचय और कार्य,  आइये लेखक के व्याख्या का आगला लेख पढ़े-

व्याख्या भाग 1 ड.

     क्षर - अक्षर , अपरा - परा , सगुण - निर्गुण और असत् - सत् - ये सापेक्ष शब्द हैं । गुरुदेव अपनी पदावली में लिखते हैं कि परमात्मा सापेक्ष भाषा के द्वारा वर्णित नहीं किया जा सकता- “ औ सापेक्ष भाषा न पावै कभी भी. ( पद्य - सं ० ४२ ) इसलिए परम प्रभु परमात्मा को न क्षर , न अक्षर ; न अपरा , न परा ; न सगुण , न निर्गुण और न असत् , न सत् ही कह सकते हैं । गीता , अ ० १३ , श्लोक १२ में कहा गया है कि ब्रह्म न सत् है , न असत् ही । इस प्रकार कह सकते हैं कि परमात्मा सापेक्ष शब्दों से परे है । त्रय गुणों के साथ रहने के कारण परमात्म - अंश सगुण ( त्रय गुण - सहित ) है ; परन्तु त्रय गुणों के साथ रहते हुए भी वह त्रय गुणों के प्रभाव से विहीन है , इसलिए वह सगुण नहीं है । परमात्मा त्रय गुण - रहित है , इसलिए वह निर्गुण है ; परन्तु गुण उसके अधीन हैं , इसलिए वह निर्गुण नहीं है । परा प्रकृति और आदिनाद गुण - रहित होने के कारण निर्गुण हैं ; परन्तु परमात्मा परा प्रकृति और आदिनाद नहीं है । 

कभी ना अगुण वा सगुण ही है जोई । ( पद्य-सं ० ४२ )   

     परमात्मा सब शरीरों और जड़ तथा चेतन - दोनों प्रकृतियों के पार में है । वह किसी भी शरीर और पंच कोषों में भी नहीं बझा हुआ है

 ' त्रितन पाँच कोषन में जो न बझा है । ' ( पद्य - सं ० ३८ ) 

     गुरुदेव ने अपनी पदावली में कहीं - कहीं केवल तीन ही शरीरों का उल्लेख किया है , वे तीन शरीर हैं- स्थूल , सूक्ष्म और कारण ।

स्थूल सूक्ष्म कारण झड़ए सब फाँस हो । ( पद्य - सं ० ७३ ) 

     ' रामचरितमानस - सार सटीक ' के अरण्यकांड में भी गुरुदेव लिखते हैं कि “ साधारणत : शरीर के तीन प्रकार हैं - स्थूल , सूक्ष्म और कारण । ” जड़ शरीर महाकारण और चेतन शरीर कैवल्य इनमें नहीं लिये गये हैं । इसका कारण यह मालूम पड़ता है कि कारण शरीर और महाकारण शरीर को एक ही मानकर अलग से महाकारण शरीर की गिनती शरीरों में नहीं की गयी है । कारण और महाकारण शरीरों को सरल भाषा में एक उदाहरण के द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है । एक घड़े के बनने में जितनी मिट्टी लगी है , वह उस बरतन का कारण - रूप है । धरती की शेष मिट्टी , जो घड़े बनने से बच रही है , महाकारण है । इस प्रकार हम देखते हैं कि महाकारण कारण की ही खानि है । महाकारण और कारण तत्त्वरूप में भिन्न नहीं , एक ही है । इसीलिए महाकारण की गिनती कारण के ही अंतर्गत कर ली गयी है । शरीर आवरणरूप है , जो परमात्म - प्राप्ति में बाधक है । जड़ शरीर में रहने पर परमात्म - तत्त्व की झलक तक नहीं मिल पाती । कैवल्य शरीर भी परमात्म - प्राप्ति में बाधक है । कैवल्य शरीर के पार में ही परमात्म - स्वरूप से एकमेकता हो पाती है । इतना अवश्य है कि कैवल्य  शरीर परमात्मा की झलक पाने देने में बाधक नहीं है । इसीलिए कहीं - कहीं इसकी भी गिनती शरीरों में नहीं की गयी है । 
     अन्नमय , प्राणमय , मनोमय , विज्ञानमय और आनंदमय - ये पाँच कोश हैं । प्रत्यक्ष दिखलायी पड़नेवाला यह स्थूल शरीर , जो अन्न से पोषित होता है , अन्नमय कोश कहलाता है । शरीर के अंदर प्राण , अपान , समान , उदान और व्यान - ये पाँच वायु हैं । इन पाँच वायुओं के समूह को प्राणमय कोश कहते हैं । 
     कहते हैं , नाक के आगे से लेकर हृदय तक प्राणवायु विचरती है । अपान वायु का स्थान गुदा है । यह नीचे की ओर गमन करती है । मूत्र - वीर्य , विष्ठा और गर्भ इसी के द्वारा नीचे उतरता है । हृदय से लेकर नाभि क समान वायु रहती है । भोजन के रस को यही समूचे शरीर में यथास्थान पहुँचाती है । व्यान वायु समस्त शरीर में नाड़ियों होकर विचरती है । बलसाध्य काम यही वायु करती है । उदान का स्थान कंठ है , यह सिर तक चलती है । इन पाँच वायुओं के अतिरिक्त पाँच वायु और हैं - नाग , कूर्म , कृकर , देवदत्त और धनंजयनाग वायु से डकार आती है । कूर्म वायु आँखों की पलकें उघारती है । देवदत्त के कारण जँभाई ( हाँफी ) आती है । कृकर से छींक आती है और मरने पर धनंजय वायु शरीर को फुलाती है । 

प्राण पवन हिरदय में वासा । जेहि ते निशिदिन निकसत श्वासा ।। गुदा अपान नाभि समाना । कण्ठ उदान सर्व तनु व्याना ॥ नाग वायु ते उठै डकारै । कूरम नयन पलक उघारै ॥ देवदत्त आवै जमुहाई । किरकिल छींक लगावै भाई ॥ मुये धनंजय देह फुलावै । ये दस पौन सरीर रहावै ॥ ( विश्राम सागर : श्रीरघुनाथ दासजी ) 

     मन के सहित पाँच कर्मेन्द्रियाँ ( हाथ , पैर , मुँह , लिंग और गुदा ) मनोमय कोश कहलाती हैं । बुद्धि के सहित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ( आँख , कान , जिह्वा , त्वचा और नाक ) ज्ञानमय कोश कहलाती हैं । अन्नमय कोश और प्राणमय कोश के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है । ये चारो कोश जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं के अंतर्गत हैं । केवल चित्त इन्द्रिय से युक्त सुषुप्ति अवस्था आनंदमय कोश कहलाती है । ' कोश ' का अर्थ है - आवरण । जीव इन पंच कोशों में आबद्ध है ; परन्तु परमात्मा इनसे ऊपर है । 

     अन्नमय कोश सो तो , पिण्ड है प्रकट यह प्राणमय कोश पंच , वायु ही बखानिये ॥ मनोमय कोश पंच , कर्म इन्द्रि है प्रसिद्ध । पंच ज्ञान इन्द्रिय विज्ञानमय जानिये ॥ जागते स्वपन विषे , कहिये चत्वार कोश | सुषुपति माँहि कोश , आनन्दमय मानिये ॥ पंच कोश आतमा को , जीव नाम कहियत । सुन्दर शांकर भाष्य , सांख्य ये बखानिये ॥ ( संत सुन्दर दासजी ) ]

श्लोक नंबर 2

सब नाम रूप के पार में , मन बुद्धि वच के पार में । 

गो गुण विषय पँच पार में , गति भाँति के हू पार में ॥२ ॥

      भावार्थ - वह परमात्मा सब नाम - रूपों से विहीन , मन - बुद्धि आदि भीतरी इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आने के योग्य , कहने में नहीं आ सकनेवाला और कर्म तथा ज्ञान की बाहरी दस इन्द्रियों की पकड़ से भी बाहर है । इसी प्रकार वह सत्त्व , रज तथा तम - प्रकृति के इन तीनों गुणों से रहित और रूप - रस आदि पंच विषयों से भिन्न है । वह कुछ भी चलायमान या कंपनशील नहीं है , उसके प्रकार भी नहीं हैं ॥ २ ॥

व्याख्या - भाग → 2 क

     [ जगत् के दो भाग हैं - दृश्य और अदृश्य सृष्टि में पहले सूक्ष्म पदार्थ बना है , तब स्थूल पदार्थ । अदृश्य जगत् दृश्य जगत् की अपेक्षा सूक्ष्म है । इसलिए पहले अदृश्य जगत् बना है , उसके बाद दृश्य जगत् । 

     कोई चित्र रेखाओं से बनता है और रेखाएँ विन्दुओं के मेल से बनती हैं । इसलिए कह सकते हैं कि कोई भी चित्र विन्दुओं से बनता है । जिस प्रकार कोई चित्र विन्दुओं से बना हुआ होता है , उसका बनाया जाना एक विन्दु से आरंभ किया जाता है और उसके निर्माण की समाप्ति भी एक विन्दु पर ही होती है , उसी प्रकार दृश्य जगत् श्वेत ज्योतिर्मय विन्दुओं से बना हुआ है , उसका आरंभ एक श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु से होता है और अंत भी एक श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु पर ही होता है । 

     किसी पदार्थ के उस छोटे - से - छोटे कण को , जिसका आगे विभाजन न हो सके , संत लोग विन्दु कहते हैं । ऐसे टुकड़े को भौतिक वैज्ञानिक परमाणु कहते हैं , परन्तु भौतिक वैज्ञानिक को ऐसे टुकड़े ( विन्दु ) का अभी तक पता नहीं लग पाया है । वैज्ञानिक जिस टुकड़े को परमाणु मानते आ रहे थे , अब वह एलेक्ट्रॉन , प्रोट्रॉन और न्यूट्रॉन में विभाजित पाया गया है ।.... 


अगला पोस्ट में जानेंगे --   असली विन्दु कैसे प्राप्त होता है?  विंदु, अणु, परमाणु, का वर्णन आदि के बारे में. अवश्य पढ़े.

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     प्रभु प्रेमियों ! इस पोस्ट का पाठ करके हम लोगों ने  पंचकोष की अवधारणा का वर्णन, पंचकोश का सिद्धांत किसने दिया, शरीर के चार कोषों के नाम, पंचकोश के प्रकार, विज्ञानमय कोश म्हणजे कार्य, अन्नमय कोश का अर्थ, प्राणमय कोष कितने होते हैं, देह में स्थित पंचकोश, पंचकोश ध्यान, पंच कोश साधना, जीव कोष क्या है, के बारे में जाना अगर आपको इस तरह का पोस्ट पसंद है, तो इस ब्लॉग को सब्सक्राइब कर लें, इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना ईमेल द्वारा नि:शुल्क प्राप्त होती रहेगी. इस बात को अपने इष्ट मित्रों को भी अवश्य बता दें, जिससे उनको भी लाभ हो. फिर मिलते हैं दूसरे पोस्ट में . जय गुरु महाराज!  निम्न विडियो में उपरोक्त लेख का पाठ करके सुनाया गया है.


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