संतमत-दर्शन व्याख्या भाग 1 क
बाबा लालदास और गुरुदेव |
॥ ईश - स्तुति ॥
उपरिलिखित पद्य ' महर्षि मेंहीँ - पदावली ' का प्रथम पद्य है । इसमें ईश्वर का गुणगान करते हुए उसका स्वरूप ही बतलाया गया है । इस पुस्तक में इसी पद्य की पूरी व्याख्या करने का नम्र प्रयास किया जा रहा है ।
श्लोक नंबर 1
निर्गुण सगुण के पार में , सत असत हू के पार में ॥१ ॥
पद्यार्थ - परमात्मा सब शरीरों ( स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण औरकैवल्य ) से रहित है । वह क्षर , अपरा , सगुण तथा असत् कही जानेवाली जड़ प्रकृति और अक्षर , परा , निर्गुण तथा सत् कही जानेवाली चेतन प्रकृति से भी श्रेष्ठ तथा ऊपर है ।
व्याख्या - भाग → 1 क
सृष्टि निर्माण कैसे हुआ ? Srshti nirmaan kaise hua
संसार में कोई भी पदार्थ या कार्य बिना कारण के नहीं होता हुआ देखा जाता । कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है । यहाँ घड़ा कार्य है और कुम्हार एवं मिट्टी उसके कारण । इन दोनों कारणों में कुम्हार को निमित्त कारण और मिट्टी को उपादान कारण कहा जाएगा । चाक , डंडा आदि अन्य पदार्थ भी , जो घड़े के बनाने के काम में प्रयुक्त किये जाते हैं , निमित्त कारण के ही अंतर्गत लिये जाएँगे ।
जो कार्य करे या जिसकी सहायता से कोई कार्य हो , उसे निमित्त कारण कहते हैं । वह वस्तु , जिससे कोई कार्य हो या जिससे कोई पदार्थ बने अथवा जो सामग्री स्वयं कार्य के रूप में परिणत हो जाए , उसे उपादान कारण कहते हैं । निमित्त कारण गौण कारण है और उपादान कारण प्रधान कारण ; क्योंकि हम देखते हैं कि घड़ा बनने के बाद कुम्हार , चाक , डंडा आदि उससे बिल्कुल अलग हो जाते हैं ; परन्तु उपादान कारण - रूप मिट्टी कार्यरूप घड़े से कभी भी अलग नहीं की जा सकती ।
संसार में जो कुछ भी सृजित हुआ है , उसका कुछ - न - कुछ अथवा कोई - न - कोई कारण अवश्य है । परमात्मा लौकिक तत्त्व नहीं है । वह परम अलौकिक तत्त्व है । वह सबका कारण है ; परन्तु उसका कारण कुछ भी या कोई भी नहीं है । उसमें कारण - कार्य का नियम लागू नहीं होता ।
कारण कारज भेद नहीं कछु , आपमें आपहिं आप तहाँ है । ( संत सुन्दरदासजी )
मूल न फूल बेलि नहिं बीजा , बिना बृच्छ फल सोहै । ( संत कबीर साहब )
परमात्मा अज ( अजन्मा ) कहलाता है । वह न कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी उत्पन्न होगा । वह है ही और रहेगा ही । उसका कोई या कुछ उपादान कारण नहीं है । उसकी स्थिति का निमित्त कारण तथा उपादान कारण वह स्वयं ही है , कोई दूसरा पदार्थ नहीं ।
सृष्टि के लिए कहा जाता है कि उसका निमित्त कारण परमात्मा है और उपादान कारण प्रकृति ।
हम जानते हैं कि घड़े का निमित्त कारण कुम्हार और उपादान कारण मिट्टी- ये दोनों अलग - अलग सत्ताएँ होती हैं । मिट्टी पहले से बनी होती है , जिससे कुम्हार घड़ा बनाता है । स्वयं कुम्हार घड़ा नहीं बन जाता । वह अपने हस्त - कौशल से मिट्टी को एक विशेष आकृति देकर घड़ा बना लेता है ।
यदि कहा जाए कि परमात्मा की तरह प्रकृति भी पहले से ही है अर्थात् परमात्मा और प्रकृति- दोनों अनादि ( उत्पत्ति - रहित ) हैं , दोनों के पहले दोनों से भिन्न कोई तीसरा पदार्थ नहीं था , परमात्मा प्रकृति को उत्पन्न नहीं करता , वह पहले से ही स्थित प्रकृति से सृष्टि करता है , जैसा कि कुम्हार पहले से ही बनी हुई मिट्टी से घड़ा बनाता है , तो ऐसा कहना असत्य होगा ।
उत्पत्ति के विचार से दो पदार्थ अनादि नहीं हो सकते । उनमें से कोई एक दूसरे से पहले का अवश्य होगा , नहीं तो दोनों एक - दूसरे के अखंडित ( अभिन्न ) अंश होंगे । दो पदार्थों का ज्ञान होने के लिए उनके बीच शून्य होना चाहिए । यदि शून्य नहीं है , तो दोनों एक ही अखंडित पदार्थ होंगे और यदि शून्य होगा , तो वही शून्य उन दोनों पदार्थों से पहले का तत्त्व माना जाएगा । इसलिए उत्पत्ति के विचार से एक ही तत्त्व आदितत्त्व या अनादि तत्त्व होगा , दो नहीं । सांख्य दर्शन ब्रह्म की सत्ता को नकारते हुए दो पदार्थों को अनादि ( उत्पत्ति - रहित ) मानता है , वे हैं- पुरुष ( चेतन प्रकृति ) और प्रकृति ( जड़ प्रकृति ) । संतमत सांख्य दर्शन के इस विचार को नहीं मानता है ।
[ ' अनादि ' ( अन् + आदि = न + आदि ) के तीन अर्थ हैं- १. आदि , मध्य और अन्त - रहित , २. उत्पत्ति - रहित और ३. जिसके पूर्व दूसरा कोई पदार्थ नहीं हो । ' अनादि ' का विपरीतार्थक शब्द सादि है । ' सादि ' ( स + आदि ) के भी तीन अर्थ हैं- १. जिसका आदि , मध्य और अन्त बताया जा सके , २. जिसकी कभी उत्पत्ति हुई हो और ३. जिसके पूर्व दूसरा कोई पदार्थ हो । अज , अनादि तथा सादि पुँल्लिंग विशेषण हैं और अजा , अनाद्या तथा साद्या स्त्रीलिंग विशेषण । ]
परमात्मा ही सबसे पहले का है । प्रकृति उसके पीछे उसी के द्वारा बनी है । इसलिए प्रकृति अजा नहीं कहला सकती । वह स्वतंत्र नहीं है । वह परमात्मा के अधीन है और उसी की सत्ता पर एक महान् यंत्र की नाईं पचालित हो रही है ।
प्रकृति के आदि में परमात्मा था । इसलिए परमात्मा को आदितत्त्व कहते हैं । परमात्मा के आदि में उससे भिन्न दूसरा कोई पदार्थ नहीं था । इसलिए उसे अनादि तत्त्व भी कहते हैं । परमात्मा कहाँ है और कबसे है ,यह बताने के लिए देश - काल का ज्ञान होना चाहिए ; परन्तु परमात्मा देश - काल में नहीं है । प्रकृति के बनने पर ही देश - काल बने हैं । प्रकृति परमात्मा से पीछे बनी है । इसलिए परमात्मा का देश ( स्थान ) और काल ( समय ) नहीं बतलाया जा सकता । देश और काल की दृष्टि से भी परमात्मा अनादि है ।
प्रकृति उत्पत्ति के विचार से साद्या ( आदि - सहित ) है ; क्योंकि उसके आदि में कुछ था और वह है परमात्मा । प्रकृति भी देश - काल में नहीं उपजी है । प्रकृति के बनने पर ही देश - काल बने हैं । इसलिए प्रकृति के भी उत्पन्न होने का देश और काल नहीं बताये जा सकते । इस दृष्टि से ( देश - काल की दृष्टि से ) प्रकृति अनाद्या है । यदि देश - काल की दृष्टि से प्रकृति को अनादि ( अनाद्या ) कहा जाए , तो परमात्मा को अनादि का भी आदि कह सकते हैं । उत्पत्ति के विचार से प्रकृति अनाद्या नहीं है ।
संसार में जो कुछ भी क्रिया होती है , उससे संबंधित वस्तुओं में कंपन होता है और उस कंपन से शब्द होता है । शब्द भी स्वयं कम्पनमय होता है । हम मिट्टी की एक गोली बनाते हैं । उस समय भी हमारी उँगलियों में और बनायी जाती हुई गोली में कम्पन होता है , जिससे शब्द की उत्पत्ति होती है । संत - महात्मा कहते हैं कि शब्द से ही सृष्टि हुई है ।
जेहि सब्द से प्रगट भये सब , सोई सब्द गहि लीजै ॥
( संत कबीर साहब )
सृष्टि निर्माण के लिए परमात्मा से पहले - पहल जो शब्द स्फुटित हुआ , वह आदिनाद कहलाता है । परमात्मा के द्वारा किसी पदार्थ में ठोकर दिये जाने पर आदिनाद उत्पन्न नहीं होता । आदिनाद उत्पन्न होने पर ही कोई पदार्थ बनता है । उसके पूर्व परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं होता । परमात्मा से आदिनाद उत्पन्न होता है ; परन्तु ऐसा होते हुए भी परमात्मा अकम्पित रहता है । परमात्मा अनंत है , उसे काँपने के लिए स्थान ही कहाँ है ? अनन्त परमात्मा अत्यन्त सघनता से एकरस सर्वत्र व्यापक है । उसमें लचकन , सिकुड़न , कंपन या गति नहीं हो सकती ; देखें
न संचालना नाहिं विस्तृत्व जामें ॥
( महर्षि मेँहीँ - पदावली , ४२ वाँ पद्य ) .....
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संतमत दर्शन |
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