प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों में से ध्यान योग से संबंधित बातों को रामायण से संग्रहित करके सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज ने 'रामचरितमानस सार सटीक' नामक पुस्तक की रचना की है। जिसका टीका और व्याख्या भी किया गया है ।
उन्हीं प्रसंगों में से आज के प्रसंग में जानेंगे- भगवती सीता जी और सती अनसूया जी का मिलन और बात-चीत के बारे में जिसमें सती अनुसूया जी पतिव्रत धर्म के नियम, उत्तम मध्यम और नीच पतिव्रता स्त्री किसे कहते हैं? क्या आप पति व्रत करते समय ईश्वर भक्ति नहीं करनी चाहिए? रामचरितमानस और धर्म ग्रंथों में ईश्वर भक्ति और पति भक्ति में श्रेष्ठ कौन है? शबरी की भक्ति कैसी थी? आदि बातों पर चर्चा हुई है। इसके साथ ही आप निम्न बातों पर भी कुछ-न-कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं; जैसे कि पतिव्रत धर्म की कथा, पतिव्रत धर्म के नियम, पतिव्रत धर्म क्या है, पतिव्रता स्त्री की पहचान, पतिव्रता का अर्थ, पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य, पतिव्रता धर्म, कलयुग की पतिव्रता नारी, पतिव्रत धर्म क्या होता है? पतिव्रता स्त्री की क्या पहचान है? पतिव्रता कैसे बने? नारी के कितने गुण होते हैं? पतिव्रत धर्म क्या है, पतिव्रता स्त्री के लक्षण, पतिव्रता स्त्री की पहचान, पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य, नारी धर्म, पतिव्रता का अर्थ, पतिव्रता नारी के लक्षण, आदि बाातें । इन बातों को जानने केे पहले आइए सन्त-महात्माओंं का दर्शन करेंं-
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पतिव्रत धर्म पालन करनेवाली स्त्रियों के लिए शास्त्रोक्त वचन
१. नोलूखले न मुसले न वर्द्धन्यां दृषद्यपि । न यन्त्रके न देहल्यां सती च प्रवसेत्वचित् ॥ ( शिवपुराण , रुद्र ० पार्वती ०५४ । ३८ ) नोलूखले " सती चोपविशेक्वचित् ॥ ( स्कन्दपुराण , ब्रह्म ० धर्मा ०७।३१ )
ओखली , मूसल , झाडू , सिल , चक्की और द्वारकी चौखट ( दहलीज ) -इनके ऊपर स्त्रीको कभी नहीं बैठना चाहिये ।
पतिकी आयु बढ़नेकी अभिलाषा रखनेवाली पतिव्रता स्त्री हल्दी , रोली , सिन्दूर , काजल आदि ; चोली , पान , मांगलिक आभूषण आदि ; केशोंको सँवारना , चोटी गूंथना तथा हाथ - कानके आभूषण - इन सबको अपने शरीरसे दूर न करे ।
३. पत्यौ जीवति या नारी उपोष्य व्रतमाचरेत् । आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत् ।। ( पाराशरस्मृति ४।१७ )
नारी पत्यननुज्ञाता या व्रतादि समाचरेत् । जीवन्ती दुःखिनी सा स्यान्मृता नरकं व्रजेत् ॥ ( स्कन्दपुराण , काशी ० उ ०८२ ॥ १३ ९ )
जो स्त्री अपने पतिकी आज्ञा लिये बिना ही व्रत - उपवास करती है , वह पतिकी आयु हरती है , जीते - जी दुःख पाती है और मरनेपर नरकमें जाती है । (विशेष जानकारी के लिए )
पतिव्रत धर्म और ईश्वर भक्ति
अत्रि मुनि की स्त्री अनसूया देवी सीताजी को अपने पास आदर से बिठाकर पातिव्रत्य धर्म का उपदेश देने लगीं।
हे राजकुमारी सीताजी ! सुनो , माता , पिता और भाई की हितकारिता तौली हुई ( परिमित ) है ।
अमित दानि भर्ता बैदेही । अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥३ ९ २ ॥
परन्तु हे सीताजी ! पति अपरिमित सुख देनेवाले हैं । वह स्त्री अधम है , जो उनकी ( पति की ) सेवा नहीं करती है ।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपद काल परखियहिं चारी ॥३ ९ ३ ॥
धीरज , धर्म , मित्र और स्त्री की परीक्षा विपत्ति - काल में होती है । जो धर्म को विचार और कुल को ( कुल की प्रतिष्ठा को ) समझकर रह जाती है , वेद कहता है कि वह तुच्छ स्त्री है ।
बृद्ध रोग बस जड़ धन हीना । अन्ध बधिर क्रोधी अति दीना ॥३ ९ ४ ॥
बूढ़ा , रोगी , अज्ञानी , निर्धन , अन्धा , बहरा , क्रोधी और बहुत दुःखी ,
ऐसेहु पति कर किय अपमाना । नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥३ ९ ५ ॥
ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में अनेक दुख पाती है।
एकहि धर्म एक ब्रत नेमा । काय बचन मन पति पद प्रेमा ॥३ ९ ५ क ॥
स्त्रियों के लिए एक ही धर्म और एक ही व्रत का नियम है - शरीर , वाणी और मन से पति के चरणों में प्रेम करना ।
जग पतिव्रता चारि बिधि अहहीं । बेद पुरान सन्त सब कहहीं ॥३ ९ ६ ॥
वेद पुराण और संत सभी ऐसा कहते हैं कि जगत में चार प्रकार की पतिव्रता नारियाँ होती हैं ।
उत्तम के अस बस मन माहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥३ ९ ७ ॥
उत्तम श्रेणी की पतिव्रता नारी का मन उसके वश में इस प्रकार रहता है कि उसको जगत में ( स्व - पति को छोड़कर ) पर - पुरुष स्वप्न में भी नहीं दीखता है ।
मध्यम पर पति देखहिं कैसे । भ्राता पिता पुत्र निज जैसे ॥३ ९ ८ ॥
मध्यम श्रेणी की पतिव्रता नारी पराए पति को कैसे देखती है - जैसे कि वह अपना सगा भाई , पिता या पुत्र हो । ( अर्थात् अपनी उम्र के पुरुष को भाई , अधिक उम्र वाले को पिता और कम उम्र वाले को पुत्र - सम देखती है । ) ।
धरम बिचारि समुझि कुल रहई । सो निकृष्ट तिय स्तुति अस कहई ॥३ ९९ ॥
जो धर्म को विचार और कुल को ( कुल की प्रतिष्ठा को ) समझकर रह जाती है , वेद कहता है कि वह तुच्छ स्त्री है ।
जो स्त्री अपने पति को ठगकर दूसरे पुरुष से प्रेम करती है , वह सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ती है ।
छन सुख लागि जनम सत कोटी । दुख न समझ तेहि सम को खोटी ॥४०२ ॥
जो क्षण भर के सुख के लिए सौ करोड़ जन्मों के दुःख को नहीं समझती , उसके समान खोटी कौन है ?
बिनु श्रम नारि परम गति लहई । पतिब्रत धर्म छाडि छल गहई ॥४०२ क ॥
जो स्त्री कपट छोड़कर पातिव्रत्य धर्म को धारण करती है , वह बिना परिश्रम के परम गति पाती है ।
[ पति - सेवा सगुण - उपासना के तुल्य है । इस उपासना से वह परमपद प्राप्त नहीं होता है , जो ‘ अति दुर्लभ कैवल्य परम पद ' है । हाँ , उसको स्वर्गादि लाभ होते हैं और अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति होती है ।
चौ ० सं ० ४०२ में जो ‘ परम गति ' कहा है , सो स्वर्ग आदि अणिमादि लाभ को ही कहा गया है । कैवल्य पद की गति वह है , जो महाभक्तिन श्रीशवरीजी को हुई थी , जिनके लिए लिखा है कि
' तजि जोग पावक देह हरिपद लीन भइ जहँ नहिँ फिरै । '
शवरीजी से श्रीराम ने कहा था कि
' मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ ' और ' जोगिवृन्द दुर्लभ गति जोई । तो कहँ आज सुलभ भइ सोई ॥ '
योगियों की दुर्लभ गति निज सहज स्वरूप की प्राप्ति ही है और निज सहज स्वरूप के विषय में गोस्वामी तुलसीदासजी “ विनय - पत्रिका ' में कहते हैंैं-
अनुराग सो निज रूप जो जग तें बिलच्छण देखिए । संतोष सम सीतल सदा दम देहवन्त न लेखिये ॥ निर्मल निरामय एक रस तेहि हरष सोक न व्यापई । त्रयलोक पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ॥ '
यह निज सहज स्वरूप निर्गुण आत्म - स्वरूप है , जो योगतत्त्वोपनिषद् में लिखा है-
अर्थात् सगुण का ध्यान अणिमा आदि गुणों का देनेवाला है और निर्गुण - ध्यान से युक्त को समाधि होती है । शवरीजी से श्रीराम ने जो नवधा भक्ति का वर्णन किया था , उसमें नवधा भक्ति के अतिरिक्त केवल पातिव्रत्य धर्म के पालन से भी ' जोगिवृन्द दुर्लभ गति ' और ' सहज स्वरूप की प्राप्ति होती है , सो नहीं लिखा है । स्वर्ग और अणिमादि सिद्धियों के लिए रामचरितमानस में यह लिखा है कि
रिद्धि - सिद्धि प्रेरइ बहु भाई । बुद्धिहि लोभ दिखावइ आई ॥ होइ बुद्धि जो परम सयानी । तिन्ह तन चितब न अनहित जानी ॥ '
और
' एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ॥ '
ईश्वर के सगुण और निर्गुण , रूप और स्वरूप की भक्ति के बिना परम गति वा मुक्ति नहीं होती ।
' बारि मथे घृत होइ बरु , सिकता तें बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिय , यह सिद्धान्त अपेल ॥ ' ( रा ० च ० मा ० ) चौ ० सं ० ३ ९ ५ ( क ) और ४०२ ( क )
विदित करती है कि स्त्रियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए पातिव्रत्य धर्म ही एक धर्म है , जिसे वे छल छोड़कर करें । बालकाण्ड में श्रीसीताजी का विवाह श्रीरामजी से हो जाने पर श्रीसीताजी की माता उन्हें श्रीराम के साथ सासुर जाने के लिए विदा करने के समय सिखावन देती है ।
‘ सासु - ससुर गुरु सेवा करेहू । पति रुख लखि आयसु अनुसरेहु ॥ '
इस चौ ० से विदित होता है कि स्त्रियों को चाहिए कि वे सास , ससुर और गुरु की सेवा करें तथा पति के मनोभाव को उनके चेहरे वा संकेत द्वारा जानकर उनकी सेवा का आचरण करें । उत्तरकाण्ड में दोहा है-
' पुरुष नपुंसक नारि वा , जीव चराचर कोइ । सर्व भाव भज कपट तजि , मोहि परम प्रिय सोइ । '
नवधा भक्ति का उपदेश करते हुए भगवान श्रीराम श्रीशवरीजी से कहते हैं
नव महँ एकउ जिन्हके होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ॥ सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरे । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ॥
नवधा भक्ति में श्रीराम ने श्रीशवरीजी से पति - सेवा के विषय में कुछ नहीं कहा ; किन्तु
' गुरु पद पंकज सेवा , तीसरि भगति अमान । '
और
' मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥ '
तो कहा ही है । शवरीजी की जो परम गति हुई है , सो इस प्रकार लिखित है -
इन सब उद्धरणों से जानना चाहिए कि स्त्रियों के लिए मोक्ष के हेतु उनके घरों के सास , ससुर , गुरु और पति की सेवा में यथायोग्य बरतते हुए साथ - ही - साथ ईश्वर - भक्ति में अनुरक्ति रहनी चाहिए । चौ ० सं ० ३ ९ ५ ( क ) में
“ एकहि धरम एक ब्रत नेमा । काय बचन मन पति पद प्रेमा ॥ '
कहा गया है , सो पति - सेवा की ओर बहुत जोर दिया गया है और इसी से परम गति प्राप्त करने को भी कहा गया है । इससे
' बारि मथे घृत होय बरु , सिकता तें बरु तेल । बिनु हरि भजन न भव तरिय , यह सिद्धान्त अपेल ॥ '
यह अपेल सिद्धान्त कट जाता है और
' जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोउ करइ उपाई ॥ तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ॥ '
भी गौण हो जाता है । फिर यह भी
‘ सो सब करम धरम जरि जाऊ । जहँ न राम पद पंकज भाऊ ॥ '
का महत्त्व भी मटियामेट हो जाता है । जो ' परम गति ' पति - सेवा से मिलती है और जो ' मोक्ष - सुख ' ईश्वर भक्ति से मिलता है । दोनों एक ही है , यह मानने योग्य नहीं है । पति - सेवा की परम गति में पत्नी पुण्य लोकों में जाकर पति के साथ उस लोक के सुख में रहेगी , जिसके लिए
‘ एहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई ॥ ' रामचरितमानस में लिखा है ।
परन्तु ईश्वर - भक्ति से शवरीवाली गति को पहुँचेगी । शवरी योग - युक्त होकर भक्ति करती थी । इसीलिए
यह परम गति शवरी की हुई । और गोस्वामी तुलसीदासजी “ विनय - पत्रिका ' में लिखते हैं-
' सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवइ निद्रा तजि जोगी । सोइ हरिपद अनुभवइ परम सुख अतिसय द्वैत वियोगी ॥ सोक मोह भय हरष दिवस निसि देश काल तहँ नाहिं । तुलसिदास यहि दसा हीन संसय निर्मूल न जाहिं ॥ '
यह ' देश कालातीत हरि पद ' ' अति दुर्लभ कैवल्य परम पद ' है । यह ' अतिशय द्वैत वियोगी ' को ही प्राप्त होने योग्य है । अतएव स्त्रियों को पति - भक्ति के सहित ईश्वर - भक्ति भी श्रीशवरीजी की भाँति योग - युक्त होकर अवश्य करनी चाहिए । ]
जो पति के प्रतिकूल होती है , वह जहाँ जाकर जन्म लेती जवानी पाकर विधवा हो जाती है ।
फिर राम अत्रि मुनि से विदा हो रास्ते में कबन्ध राक्षस को मारकर शरभंग मुनि के पास पहुँचे ।∆
पतिव्रताओं के लिए महत्वपूर्ण वचन
महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर के प्रवचन नं 120 में कहा गया है कि
१.
" घर में यदि पाँच भाई हो तो अपने - अपने योग्य सभी सेवा करते हैं । कोई सामाजिक , कोई राजनीतिक , कोई आध्यात्मिक ज्ञान कहते हैं। संसार में दो रूप देखे जाते हैं - स्त्री और पुरुष । इन्हीं से सारी जीव - सृष्टि है यहाँ दो काम है - एक तो राज्य प्रबंध ; क्योंकि बिना राज्य - प्रबंध के कोई घर ठीक नहीं रह सकेगा । दूसरा , स्त्री - पुरुष का वैवाहिक सम्बन्ध । वेदों में मैंने इन बातों को बहुत देखा । वैवाहिक सम्बन्ध जिस देश में गड़बड़ होगा , वह देश एकदम खराब हो जाएगा* और जहाँ राज्य - प्रबन्ध ढीला हुआ , वहाँ दूसरे आकर बैठ जाएँगे । वैवाहिक संबंध के लिए अपने कुल में जैसा व्यवहार है , उस तरह बरतें । इस तरह जो बरतते हैं , वे ही ठीक सत्संगी और सत्संगिनी हैं । वैवाहिक संबंध का जो नियम है , उसके अनुकूल जो रहे , तो व्यभिचार नहीं होगा । जहाँ इसके प्रतिकूल करते हों , वहाँ धर्म टिक नहीं सकता ।
यदि कोई कहे कि स्त्री को पुरुष हो गया , तब परमात्मा की उपासना नहीं करे , वह पुरुष की ही आराधना करे , तो यह ठीक नहीं । ईश्वर की भक्ति स्त्री - पुरुष सबके लिए है ।
किंतु हाँ , कोई - कोई ऐसे भी पति हैं , जैसे भूपेन्द्रनाथ सान्यालजी हैं । मैं उनकी प्रशंसा करता हूँ । पहले उन्होंने अपनी स्त्री को दीक्षा नहीं दी । बहुत दिनों के बाद सुनता हूँ कि उन्होंने अपनी स्त्री को दीक्षा दी । किंतु अब पहले जैसा स्त्री - पुरुष का संबंध नहीं रहा । किंतु फिर भी साथ - साथ रहते हैं । लेकिन ऐसे कितने आदमी हैं ? " ( पूरा प्रवचन पढ़ने के लिए यहां दबाएं।)
महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर के प्रवचन नं 122 में कहा गया है कि
२.
"सावित्री का विवाह सत्यवान से हुआ । नारदजी से सावित्री को जानकारी मिल गई कि सत्यवान की मृत्यु अमुक तिथि को अमुक समय में होगी । सत्यवान के माता - पिता अंधे थे । उनका राज्य भी छिन गया था । इसलिए वे लोग जंगल में रहते थे । सत्यवान लकड़ी काटकर जीवन - यापन करते थे । जब सत्यवान की मृत्यु का समय आ गया , तो सावित्री ने सत्यवान से कहा कि आज आपके साथ मैं भी जंगल जाऊँगी । सत्यवान ने कहा – यदि तुम मेरे साथ जंगल जाना चाहती हो , तो माताजी तथा पिताजी से आज्ञा ले लो । सावित्री बड़ी नम्रता से सास - ससुर से निवेदन करती है कि आज मैं भी पतिदेव के साथ जंगल देखने जाना चाहती हूँ । दोनों सास - ससुर की आज्ञा हो गई । सत्यवान के साथ सावित्री भी जंगल गई । जब सत्यवान गाछ पर चढ़कर लकड़ी काटने लगे , तो ऊपर से ही वे सावित्री से कहते हैं कि मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है । सावित्री ने कहा - आप वृक्ष से नीचे उतर आवें । नीचे उतरते ही सत्यवान बेहोश हो गए । सावित्री अपने पति का सिर अपनी गोद में रखकर बैठी है । सत्यवान को लेने यमदूत आता है । लेकिन सावित्री के पातिव्रत्य के तेज के कारण वह समीप नहीं आ सका । तब यमराज स्वयं आए और सत्यवान के सूक्ष्म लिंग शरीर को लेकर चलने लगे । सावित्री भी यमराज के पीछे - पीछे चलने लगी । यमराज ने पूछा - तुम क्या चाहती हो ? यदि कुछ वरदान माँगना हो तो मुझसे माँगो । सावित्री ने कहा - ' मेरे अंधे सास - ससुर मेरे सौ पुत्रों को भोजन करते देखें और उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल जाय । यमराज ने कहा - एवमस्तु ! जब यमराज आगे बढ़े , तो सावित्री फिर उनके पीछे चलने लगी । यमराज ने पूछा - ' तुमको मैंने वरदान दे दिया , अब क्यों मेरे पीछे आ रही हो ? ' सावित्री ने कहा ' आप तो मेरे पति को लिए जा रहे हैं , मुझे सौ पुत्र होंगे कैसे ? ' यमराज चकित हो गए और सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को उसके स्थूल शरीर में वापस कर दिया ।
इस कथा से जानने में आता है कि स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर भी है । किंतु ज्ञान कहता है कि केवल सूक्ष्म शरीर ही नहीं है । कारण , महाकारण और कैवल्य शरीर भी हैं । अपने कर्मानुसार यह जीवात्मा उन लोकों में जाकर दुःख - सुख भोगता है । एक सती स्त्री ( सावित्री ) के प्रभाव से कितना लाभ हुआ कि सौ पुत्र हुए राजा का राज्य लौट गया , अंधे - अंधी को फिर आँखें मिल गईं । इसीलिए स्त्रियों को पातिव्रत्य धर्म धारण करना चाहिए और पुरुष भी एकपत्नीव्रत धारण कर रहें तो उनका बहुत कल्याण होगा , किंतु कह सकूँगा कि इससे बिल्कुल कष्ट छूट नहीं जाते । बिल्कुल दुःख तो ईश्वर - भजन से छूट सकता है ।"
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प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "रामचरितमानस सार सटीक" के इस लेख का पाठ करके हमलोगों ने जाना कि पतिव्रत धर्म की कथा, पतिव्रत धर्म के नियम, पतिव्रत धर्म क्या है, पतिव्रता स्त्री की पहचान, पतिव्रता का अर्थ, पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य, पतिव्रता धर्म, कलयुग की पतिव्रता नारी, पतिव्रत धर्म क्या होता है? पतिव्रता स्त्री की क्या पहचान है? इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में ऊपर वर्णित विषयों पर प्रवचन करके पूज्ययपा लालदास जी महाराज ने सुनाया गया है।
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MS02-40 पतिव्रत धर्म और ईश्वर भक्ति ।। What is pativrat dharma ।। अनुसूया और सीता प्रसंग
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
5/15/2021
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