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MS02-03, तीर्थ दर्शन और संत समाज रूप तीर्थराज की विशेषता ।। महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

रामचरितमानस सार सटीक / 03

     प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों में से ध्यान योग से संबंधित बातों को रामायण से संग्रहित करके सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज ने 'रामचरितमानस सार सटीक' नामक पुस्तक की रचना की है।इसमें 152 दोहों और 951 चौपाइयों की व्याख्या की गयी है। इन्ही व्याख्याओं के एक प्रसंग पर यहाँ चर्चा की जायगी.

 आइए गुरु महाराज का दर्शन करें-


व्हील चेयर पर गुरुदेव
व्हील चेयर पर गुरुदेव

संत समाज रूप तीर्थराज की विशेषता

    प्रभु प्रेमियों ! रामचरितमानस ज्ञान का भंडार है. उन्हीं भंडार में से आज के प्रसंग में जानेंगे- रामचरितमानस में Tirth Darshan और संत समाज रूप तीर्थराज की विशेषता के बारे में। भारत के इलाहाबाद में स्थित प्रयागराज तीर्थ के दर्शन और स्नान का जो फल है। उससे कई गुना श्रेष्ठ फल संत समाज रूप तीर्थ में सत्संग वचन रूपी त्रिवेणी में स्नान करने से या सत्संग सुनने से प्राप्त होता है। बालकाण्ड – ब्राह्मण-संत वंदना,हरि अनंत हरिकथा अनंता, संतों के समागम से सुधरता है जीवन। इत्यादि बातें. 

     संतोंं  का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज है, जहाँ राम भक्तिरूपी गंगा की धारा हैं और विधि निषेध (नहीं करने योग्य कर्म) यमुना हैं और भगवान विष्णु,भगवान शंकर और धर्म शास्त्रों की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जिसे सुनते ही सभी आनंदों और कल्याणों की प्राप्ति होती हैं।

रामायण में वर्णित है-

बंदउँ प्रथम मही सुर चरना । मोह जनित संसय सब हरना ॥११ ॥ 
मैं पहले अज्ञान से उत्पन्न सब सन्देहों को मिटानेवाले भूदेवों के चरणों को प्रणाम करता हूँ । 

[ पहले गणेश आदि स्वर्गीय देवताओं की वन्दना हो चुकी है , अब पृथ्वी - तल के देवताओं की वन्दना की जाती है । इनमें सबसे श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण हैं , इसलिए पहले ब्राह्मणों को प्रणाम किया जाता है । महीसुर - भूदेव ब्राह्मण विद्वान ब्रह्मवेत्ता मोह - जनित संशयों को निस्सन्देह हर सकते हैं । ]

सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥१२ ॥ 
फिर मैं सुन्दर वाणी से प्रेम - सहित सब गुणों की खानि सुजन - समाज को प्रणाम करता हूँ ।

साधु चरित सुभ सरिस कपासू । निरस बिसद गुन मय फल जासू ॥१३ ॥
साधु का चरित्र कपास की तरह भला है , जिसका फल स्वाद से रहित है , पर निर्मल गुणमय ( सूत - सवृत्ति - युक्त ) है । 

जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा । बन्दनीय जेहि जग जसु पावा ॥१४ ॥ जो ( स्वयं ) दुःख सहकर दूसरों के दोषों को छिपाता है , वह संसार में बड़ाई करने योग्य यश को पाता है ।

मुद मंगल मय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथ राजू ॥१५ ॥ सन्तों का समाज आनन्द और कल्याणमय है , जो संसार में चलता - फिरता तीर्थराज है ।। १५।। 

राम भगति जहँ सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म - बिचार प्रचारा ॥१६ ॥ 
जहाँ ( सन्त - समाज - जंगम तीर्थराज प्रयाग में ) राम - भक्ति ( का प्रचार ) श्री गंगाजी की धारा है और ब्रह्म - विचार का प्रचार सरस्वती की धारा है । 

[ राम भगति - सर्वेश्वर के सगुण रूप का भजन या सेवा । ब्रह्म - विचार - सर्वेश्वर के सर्वव्यापी निर्गुण स्वरूप का विचार । ] बिधि निषेधमय कलि मल हरनी । करम कथा रबि नन्दिनि बरनी ॥१७ ॥ कर्तव्य - अकर्त्तव्य कर्म - कथा ( का प्रचार ) कलिमल - नाशक यमुना की धारा है । [ विधि कर्त्तव्य कर्म - गुरु की सेवा , सत्संग और ध्यानाभ्यास नित्य प्रति करना । निषेध - अकर्त्तव्य कर्म - झूठ , व्यभिचार , नशा , हिंसा और चोरी ; इन पाँच पापों को छोड़ना । ] 

हरिहर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥१८ ॥ ( सन्त - समाजरूप तीर्थराज में ) हरि और हर की कथा वेणी ( त्रिवेणी ) रूप में शोभा पाती है , जो सुनते ही आनन्द और मंगल को देती है । 

बट बिस्वास अचल निज धर्मा । तीरथराज समाज सु कर्मा ॥१ ९ ॥ 
अपने धर्म में विश्वास की अचलता ( सन्त - समाज - रूप प्रयाग में ) अक्षय वट है और सुकर्म ( इस ) तीर्थराज का मेला है । 

सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥२० ॥ 
( यह सन्त - समाज - रूप जंगम तीर्थराज ) सबको सब दिन और सब देशों में आसानी से मिलता है , आदर - सहित ( इसकी ) सेवा करने से ( यह ) दुःख का नाश करनेवाला है । 

अकथ अलौकिक तीरथ राऊ । देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥२१ ॥  
इस दिव्य तीर्थराज का वर्णन करना शक्ति से बाहर है । यह तत्काल फल देता है और इसका प्रभाव प्रकट है । 

दोहा - सुनि समुझहिं जन मुदित मन , मज्जहिं अति अनुराग । लहहिँ चारि फल अछत तनु , साधु समाजु प्रयाग ॥३ ॥ जो साधु - समाज में उपदेशों को आनन्द - मन से सुनकर समझते हैं , वे मानो प्रयाग में अधिक प्रेम के साथ स्नान करते हैं और वे इससे चारो फल ( अर्थ , धर्म , काम और मोक्ष ) शरीर रहते पा लेते हैं । 

मज्जन फल देखिय ततकाला । काक होहिं पिक बकउ मराला ॥२२ ॥ 
( वर्णित तीर्थराज में ) स्नान करने का फल तत्काल देखने में आता है कि कौआ , कोयल हो जाता है और बगुला , हंस ( हो जाता है । 

[ कहने का तात्पर्य यह है कि कटुवादी मधुरभाषी और हिंसक अहिंसक हो जाता है । ] 

सुनि आचरज करइ जनि कोई । सत संगति महिमा नहिं गोई ॥२३ ॥ 
यह सुनकर कोई आश्चर्य न करें ; क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी हुई नहीं है । 

बालमीकि नारद घट जोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥२४ ॥ 
वाल्मीकि , नारद और अगस्त्य मुनि ने अपने - अपने होने की कथा अपने - अपने मुख से कही है । 

[ वाल्मीकि डाकू और हत्यारे थे । नारद दासी - पुत्र थे और अगस्त्य की उत्पत्ति नीच स्थान से हुई थी ; पर सत्संग के प्रभाव से ये तीनों ऋषि हो गए । ] इति।


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MS02-03, तीर्थ दर्शन और संत समाज रूप तीर्थराज की विशेषता ।। महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज MS02-03, तीर्थ दर्शन और संत समाज रूप तीर्थराज की विशेषता ।। महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/03/2020 Rating: 5

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