प्रभु प्रेमियों ! संतमत का प्रतिनिधि ग्रंथ सत्संग योग के प्रथम भाग के चौथे मंत्र का चर्चा यहाँ किया जा रहा है। यह मंत्र "वैदिक विहंगम-योग" से लिया गया है। यह मंत्र और कुछ संत वाणियों के द्वारा यह सिद्ध किया जाएगा कि वेद ज्ञान और संतों के ज्ञान भिन्न नहीं है। इन बातों को समझने के पहले, आइये ग्रंथ रचयिता और संपादक संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का दर्शन करें-
तीसरे मंत्र का व्याख्या पढ़ने के लिए 👉 यहाँ दवाएँ।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ
सत्संग-योग के प्रथम भाग के चौथे मंत्र की व्याख्या
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग का प्रतिनिधि ग्रंथ सत्संग-योग के पहले, दूसरे एवं तीसरे मंत्र में बताया गया है कि शांति स्वरूप ईश्वर की प्राप्ति के लिए पहले सत्संग करे। सत्संग करने से ध्यान करने की प्रेरणा होगी और योग करने की युक्ति जानने के लिए सद्गुरु की शरण लेकर युक्ति जानना चाहिए। इस चौथे मंत्र में बताया जा रहा है कि 1.
। इत्यादि बातें। इन बातों को समझने के लिए निम्नलिखित महत्वपूर्ण लेख पढ़े और विडियो देखें, सुनें--
सत्संग-योग, भाग १
वैदिक विहंगम योग मंत्र 4
मंत्र- ओ३म् स योजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः। परीणसं कृणुते तिग्म श्रृंगों दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः॥ - सा० उ० अ० ८, मं० ३
शब्दों के भावार्थ-- ओ३म् = परमात्मा प्राप्त करने में।गावः = इन्द्रियाँ। वृथा = व्यर्थ ही। क्रीडन्तम् = नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करती हैं; क्योंकि वे परमात्मा को । न = नहीं । मिमिते = ज्ञान कर सकतीं। सः = वह पूर्व मंत्रोक्त । उरुगायस्य = विशाल गुण-गरिमावाले स्तुति अर्थात् अनाहत नाद से सम्पन्न परमात्मा को, जिसकी । जूतिं = ज्योति जो । परीणसं = नाना प्रकार के तेज प्रकट । कृणुते = करती है, उसको वह । योजते = समाधि-द्वारा साक्षात् करता है। और । स हरिः = वह हरि सब दुःखों के हरनेवाले सोम । तिग्मशृंगः = तीक्ष्ण तेज और । ऋज: = विस्पष्ट प्रकाश से युक्त होकर। दिवा = दिन और । नक्तं = रात। ददृशे = प्रकाशित होता है। ( अन्य शब्दों की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें )
शारांश-- इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान् उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ, पैर, गुदा, लिंग, रसना, कान, त्वचा, आँखें, नाक और मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना, झूठ ही एक खेल करना है; क्योंकि इनसे वह नहीं जाना जा सकता। वह तो इन्द्रियातीत है। हाँ, वह पूर्व मंत्रोक्त परमहंस योगी, उस अनाहत नाद से सम्पन्न परमात्मा को, जिसकी ज्योति शरीर के बाहर और भीतर चन्द्र-सूर्यादि अनेकों लोक-लोकान्तरों में तेज और नाना प्रकार की ज्योतियाँ प्रकट करती है, और उस सोम को, जो विस्पष्ट प्रकाश से युक्त होकर दिन और रात प्रकाशित होता है, प्राप्त करते हैं।
उपरोक्त विचारानुसार संतों के विचार
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के शब्दों में-
प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज अपनी पदावली के 39 वें भजन में कहते हैं--प
पदावली भजन 39, आचार्य संतसेवी द्वारा किया गया शब्दार्थ पदार्थ।
भावार्थ-- कोई पत्थर ( पत्थर की मूर्ति ) लेकर उसकी पूजा करता है और उसे सिर पर धारण करता है अर्थात उसे प्रणाम करता है । कोई देवी - देवता का कोई चिह्न लेकर गले में लटकाता है , कोई दक्षिण ( अयोध्या ) की ओर हरि को देखता है और कोई पश्चिम ( मक्का ) की ओर सिर नवाता है । कोई और कोई परे हुए पदार्थ को पूजने के पशु के ( समाधि समान विवेकहीन या कब में पड़े हुए व्यक्ति मूर्तियों को पूजता है मुर्दे ) को वा निर्जीव - जड़ लिए दौड़ता है - विकल होता है । गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज कहते हैं कि संसार के सभी लोग झूठे व्यवहार में उलझे हुए हैं ; श्री भगवान् का वास्तविक भेद किसी ने नहीं पाया ॥ १० ॥
रूप रेख गुन जाति जुगुति बिनु निरालम्ब मन चकृत धावै । सब विधि अगम विचारहिं तातें, ' सूर ' सगुन लीला पद गावै ॥
भावार्थ - सर्वव्यापक या अव्यक्त परमात्मा के स्वरूप के बारे में कुछ कहते नहीं बनता । जिस प्रकार गूंगे को खाये गये मीठे फल का स्वाद भीतर ही भीतर अच्छा लगता है ; परंतु वचन के द्वारा वह उसका स्वाद नहीं बता पाता , उसी प्रकार परमात्म - प्राप्ति का उच्च कोटि का आनंद निरंतर अत्यधिक संतोष देनेवाला है ; परंतु वचन के द्वारा वह व्यक्त नहीं किया जा सकता । परमात्म - स्वरूप मन - वाणी और अन्य इन्द्रियों की भी पकड़ में आनेयोग्य नहीं है । जो उसे चेतन - आत्मा से प्रत्यक्ष करता है , वही उसके बारे में भीतर - ही - भीतर समझता है । वह परमात्मा रूपरेखा , गुण और जाति से रहित है । किसी भी युक्ति के द्वारा उसके स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती । रूपरेखा , गुण और जाति के अवलंब के बिना उसका चिंतन नहीं कर पाने के कारण मन अपने ही स्थान पर चक्र की भाँति घूमता रह जाता है । ( मन इन्द्रिय - ग्राह्य पदार्थों का ही चिंतन कर सकता है । ) संत सूरदासजी महाराज कहते हैं कि परमात्म - स्वरूप को सब तरह से अवर्णनीय ( अकथनीय ) समझकर में सगुण ब्रह्म की ही लीलाओं के पद गा रहा हूँ ।
महायोगी गोरखनाथजी महाराज की वाणी
महायोगी गोरखनाथजी महाराज की वाणी नंबर 02 में कहते हैं--
पद्यार्थ - बुद्धि के परे और इन्द्रियों के ज्ञान के परे परम प्रभु परमात्मा ऐसा है , जो न भरती है और न खाली है और उसका शब्द आकाश की चोटी पर बालक के स्वर के सदृश सुरीला होता है ; उसका किस प्रकार नाम धरोगे ? अर्थात् उसका किसी प्रकार नाम नहीं धर सकोगे ।।१।। इति।।
प्रभु प्रेमियों ! इसी प्रकार अन्य संतों की भी वाणियों में भी ईश्वर प्राप्ति के बारे उपरोक्त बातें वर्णित है । यहाँ लेख विस्तार न हो इसलिए इतना ही दिया गया है। ∆
सत्संग - योग भाग १ में प्रकाशित उपरोक्त मंत्र
सत्संग - योग भाग १ में प्रकाशित उपरोक्त मंत्र का अंग्रेजी अनुवाद-
अंग्रेजी भाषा में वेद मंत्र 3
आगे है--
केनोपनिषद, भाग-। का मंत्र जो (सामवेद का अंश है)
मंत्र- यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतं ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिद उपासते ।।5।।
केनोपनिषद के इस मंत्र की व्याख्या पढ़ने के लिए 👉 यहाँ दवाएँ।
प्रभु प्रेमियों ! आप लोगों ने उपरोक्त वेद-मंत्रों के माध्यम से जाना कि वेदों में सत्संग, ध्यान, सद्गुरु और ईश्वर-प्राप्ति के लिए ईश्वर-स्वरूप का सही ज्ञान प्राप्त कर सही तरीके से चलने के बारे में क्या कहा गया है । इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई प्रश्न है। तो आप हमें कमेंट करें । हम गुरु महाराज के शब्दों में ही उत्तर देने का प्रयास करेंगे आप इस ब्लॉक का सदस्य बने। जिससे आने वाले पोस्टों की सूचना आपको नि:शुल्क सबसे पहले मिलती रहे ।
प्रभु प्रेमियों ! अगर आप सत्संग योग पुस्तक के बारे में विशेष रूप से जानना चाहते हैं या इस पुस्तक के अन्य लेखों को पढ़ना चाहते हैं तो 👉 यहां दवाएं।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के शर्तों के बारे में जानने के लिए 👉 यहाँ दवाएँ ।
---×---
MS01-4 वेद-मंत्र 4 || ईश्वर का स्वरूप कैसा है और उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं? What is the nature of God
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
8/01/2024
Rating: 5
कोई टिप्पणी नहीं:
सत्संग ध्यान से संबंधित प्रश्न ही पूछा जाए।