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LS14 छंद-योजना 05 || छंद की परिभाषा, व्याख्या, पर्यायवाची, शास्त्रीय परिचय और प्रकार

महर्षि मँहीँ-पदावली' की छंद-योजना / 05

     प्रभु प्रेमियों ! 'महर्षि मँहीँ पदावली की छंद योजना' पुस्तक के इस भाग में हम लोग जानेंगे कि छंद किसे कहते हैं? सामान्य भाषा में छंद किसे कहते हैं?  छंद कितने प्रकार के होते हैं ? छंद का शास्त्रीय नाम कैसे पड़ा? छंद किन धातुओं से बना है? छंद के उत्पत्ति का कारण? छंद के पर्यायवाची नाम, छंद और गद्य में क्या अंतर है?   आदि बातें.


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छंद-योजना पर चर्चा करते गुरुदेव और लेखक

छंद की परिभाषा, व्याख्या, पर्यायवाची, शास्त्रीय परिचय और प्रकार-

छन्द :

     भाषा के दो रूप होते हैं गद्य और पद्य । सामान्य मानसिक दशा में और व्यावहारिक जीवन में जिस भाषा का हमलोग प्रयोग करते हैं , वह गद्य है । पद्य वह है जो सुनने में रुचिकर लगता है और जो विशेष नियमों में बँधा हुआ होने के कारण प्रवाहमय होता है । पद्य को छंदोबद्ध रचना और कविता या काव्य भी कहते हैं । वैसे जो वाक्य सुनने में अच्छा लगे और हमारे हृदय के भावों को जगाकर हमें आनन्द प्रदान करे , चाहे वह गद्य हो या पद्य , काव्य या कविता कहलाता है ; परंतु कविता या काव्य विशेषकर पद्यात्मक भाषा को ही कहते हैं । गद्य का रसात्मक वाक्य भी यदि छन्दोबद्ध और अलंकृत हो जाए , तो उसकी रसात्मकता और बढ़ जाएगी । 

     पद्यात्मक भाषा किसी भी व्यक्ति के मुख से और किसी भी क्षण नहीं निकलती है । प्रेम , हर्ष , शोक , करुणा ( दया ) , आश्चर्य आदि भावों के समय हमारी मानसिक दशा कुछ असामान्य हो जाती है , उसी समय कभी - कभी भाव - प्रधान व्यक्तियों के मुख से अनायास कविता फूट निकलती है । हमारा इतिहास भी इस बात का साक्षी है । त्रेतायुग की बात है - तमसा नदी के किनारे एक वृक्ष की शाखा पर एक क्रौंच और एक क्राँची परस्पर काम - क्रीड़ा कर रहे थे , उसी समय एक व्याधे ने वाण चलाकर क्रौंच को मार गिराया ; क्रौंची क्रौंच के वियोग से मर्माहत होकर करुण क्रन्दन करने लगी । यह दृश्य वाल्मीकिजी देख रहे थे , उनके हृदय में क्रौंची के प्रति करुणा उत्पन्न हुई । उन्होंने व्याधे को अनायास शाप के रूप में जो वचन कहा , वह छन्दोबद्ध था । वह वचन इस प्रकार है 

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥

    अर्थात् ऐ निषाद ! तू सदा के लिए प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं करे ; क्योंकि तूने काम - मोहित क्रौंच - क्रौंची में से एक का वध कर दिया । 

सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज
सद्गुरु महर्षि मेंहीं

     गद्य में मुख्यतया बुद्धि के विचारों की प्रधानता होती है और पद्य में हृदय के भावों की । मनुष्य बुद्धि और हृदय को साथ - साथ लेकर जन्म लेता है । ऐसा नहीं कि बुद्धि के बाद हृदय का विकास होता है । गद्य के साथ ही पद्य का भी विकास हुआ है । ऐसा नहीं कह सकते कि पहले पद्य का ही विकास हुआ है , पीछे गद्य का । ऐसा भी नहीं कह सकते कि सृष्टि के आदि में सभी मनुष्यों की भाषा पद्यात्मक थी , पीछे बुद्धि विकसित होने पर या हृदय का ह्रास होने पर गद्य का विकास हुआ । 

     पद्य की आत्मा है - प्रवाह । प्रवाह के अभाव में पद्य गद्य की कोटि में आ जाता है । प्रवाहमय होने के कारण पद्य सुनने में सुखद लगता है ; इसका पाठ करने में भी आनन्द आता है ; इसके उच्चारण में बहुत कम श्रम लगता है ; यह शीघ्र याद हो जाता है और बहुत दिनों तक स्मृति में बना रहता है । यही कारण है कि पद्य शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त कर लेता है और समाज में चिरस्थायी भी हो जाता है । वैदिक संस्कृत में लिखे गये विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर लौकिक संस्कृत में लिखे गये हमारे प्रायः सभी ग्रंथ छन्दोबद्ध ही हैं , चाहे वे उपनिषद् , धर्मशास्त्र , दर्शनशास्त्र , व्याकरण शास्त्र , ज्योतिष शास्त्र , छन्दःशास्त्र , वैद्यकशास्त्र , शब्दकोश , पुराण या इतिहास आदि ही क्यों न हों । विचारों को छंदोबद्ध कर देने के पीछे यही भावना होती है कि विचार समाज में आसानी से प्रचारित हो जाएँ और कभी लुप्त न हों । 

     नियमबद्धता ही छन्द की जान है । नियमबद्धता से होनेवाला कोई भी काम अच्छा ही लगता है । इसलिए कह सकते हैं कि जहाँ नियमबद्धता है , वहाँ छन्द है ; वहाँ संगीत है । समस्त विश्व छन्दोबद्ध है ; क्योंकि वह एक विशेष नियम पर गतिशील है । यदि एक नियम से कोई झरना झरे , किसी नदी की धारा बहे या कोई पत्ता हिले तो वह भी संगीत पैदा करेगा । यदि एक कौआ भी नियमित रूप से काँव - काँव करे तो उसकी बोली भी संगीत में बदल जाएगी । यदि हम किसी पत्थर के टुकड़े पर हथौड़े से नियमित प्रहार करें या किसी मैदान में नियमित रूप से चलें तो उस पत्थर और हमारे पैरों की ध्वनि भी संगीत का आनन्द प्रदान करेगी । 

पदावली' की छंद-योजना के लेखक पूज्य बाबा श्री लालदास जी महाराज
लेखक बाबा लालदास

     गद्य वह शक्तिहीन वृद्ध है , जो कष्टपूर्वक लाठी टेक टेककर किसी मैदान में टहल रहा है । पद्य वह शक्तिमान् युवक है जो सुख , स्फूर्ति और नियमित चाल से किसी मैदान में विचरण कर रहा है । गद्यात्मक रचना वह वृद्ध महिला है , जो किसी रंगमंच पर पूरी स्फूर्ति और नियमितता के साथ नाचने का प्रयास करती है , परन्तु नाच नहीं पाती है ; अंततः थककर खिन्न - उदास होकर नेपथ्य में चली जाती है । पद्यात्मक रचना वह सुन्दर और स्वस्थ युवती है , जो किसी रंगमंच पर पूरे उत्साह , पूरी स्फूर्ति और पूरी नियमबद्धता के साथ घंटों अपना नृत्य दिखाकर दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करती है । 

     गति के चलते छन्द का श्रवण सुखदायक होता है ; गति के चलते छन्द का पाठ या गायन सहज रूप से हो पाता है उसके पाठ या गायन में सुखानुभूति होती है और श्रम भी बहुत कम लगता है । गति के ही चलते छन्द आसानी से कंठस्थ भी हो जाता है । 

     गद्य पढ़ते - पढ़ते हम शीघ्र थक जाते हैं , परंतु पद्य पढ़ते - पढ़ते शीघ्र थकते नहीं । यही कारण है कि गद्य पढ़नेवाला जब थकने लगता है , तब वह गद्य को पद्य की तरह पढ़ने लगता है । पद्य के पाठ में कम समय लगता है ; क्योंकि उसका पाठ मनमाने ढंग से और तेजी से कर पाते हैं । 

सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज
सद्गुरु महर्षि मेंहीं

     जो चिन्तामुक्त होना चाहें या स्मरण शक्ति बढ़ाना चाहें , उन्हें बहुत से पद्य कंठस्थ करने चाहिए और उन्हें बारम्बार मौखिक या मानसिक रूप से गाते रहना चाहिए । सुन्दर भावोंवाला पद्य एकाग्रतापूर्वक गाने से मन चिन्ताओं की ओर से हट जाता है और सद्भावों से भर जाता है । पद्य के रटने या पाठ करने से मानसिक एकाग्रता बहुत अधिक बढ़ती है ; क्योंकि पूर्ण सचेत , सावधान और एकाग्र हुए बिना शुद्धता और क्रमबद्धता से पद्य का पाठ या गायन करना असंभव है । बच्चों के अच्छे विकास के लिए अभिभावक का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे बच्चों को आरंभ से ही अच्छे - अच्छे छन्द कंठस्थ करने और गाने के लिए प्रेरित करते रहें । छन्द रटने और गानेवाले बच्चे की बुद्धि तेज होगी , वह सदा प्रसन्न और स्वस्थ भी रहेगा । अधिक पद्य कंठस्थ रहने के कारण वह समाज में प्रतिष्ठा पाएगा , जिससे वह बुरी आदतों और अनैतिक कर्मों से भी बचते रहने की कोशिश करेगा । 

     कोई काम करने के लिए पहले मन में उसकी इच्छा होनी चाहिए । इच्छा के बिना या प्रयोजन के बिना किसी कार्य में हमारी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । कुछ लोग काव्य रचना स्वान्तःसुख के लिए करते हैं । उमड़ते भावों को किसी तरह अभिव्यक्त कर देने से हर किसी को संतुष्टि मिलती है । काव्य - रचना करने की इच्छा रखनेवाले व्यक्ति के मन में अच्छे - अच्छे चिन्तन आते हैं , जिससे वे बुरे चिन्तनों से बचे रहते हैं । इस कारण वे बुरे कर्मों की ओर नहीं झुक पाते । हृदय की पवित्रता बढ़ने से संकल्प - शक्ति भी बढ़ जाती है । काव्य - रचना में कवि के समय का सदुपयोग ही होता है , दुरुपयोग नहीं । बहुत से कवियों ने अपनी काव्य - रचना के द्वारा अपनी चिर - अभिलषित कामना भी पूरी की है ।  कुछ लोग अर्थोपार्जन के लिए , कुछ लोग समाज के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर और कुछ लोग इस भावना से भी काव्यग्रंथ लिखते हैं कि उन्हें जीवन - काल में तो कीर्ति मिले ही , मरणोपरान्त भी उनकी कीर्ति की गाथा संसार में गूंजती रहे । संतों की काव्य - रचना की ओट में उनकी जन कल्याणकारिणी भावना ही निहित होती है । 

बाबा लालदास जी महाराज
लेखक बाबा लालदास

     काव्य - रचना के लिए प्रतिभा चाहिए । काव्य - रचना की दीर्घकालिक अभ्यास ही प्रतिभा है । कवि को भाषा और छन्दःशास्त्र का भी पंडित होना चाहिए । इसके अभाव में उसकी रचना सुन्दर नहीं हो सकेगीहृदय में भावों के उमड़े बिना कोई कविता नहीं बन सकती । जो सांसारिक कामों में अधिक व्यस्त रहता है ; पवित्र जीवन नहीं बिताता है ; दुष्कर्मों में लिप्त रहता है , उसके हृदय में अच्छे भाव नहीं उमड़ सकते । पवित्र आचरणवाले कवि की ही रचना श्रेष्ठ और समाज में समादृत होकर अमर हो पाती है । संत कवि गो ० तुलसीदासजी महाराज की रचना ' रामचरितमानस ' की बराबरी का दूसरा कौन - सा महाकाव्य संसार में है ! 

     कविता बनायी नहीं जाती , वह अपने - आप बनती है । कोई लाख प्रयत्न करे कि हम जब - तब कविता बना लें , तो यह हो नहीं सकता । जो जबर्दस्ती खींचतान करके कविता बनाता है , उसकी कविता हृदयस्पशीं नहीं हो पाती । भावों का सहज रूप से उभार हुए बिना कविता नहीं बनती और भावों की स्फुँरणा कब होगी , यह कोई नहीं बता सकता । जब मन बाह्य खिंचाव - रहित , शान्त , निश्चिन्त , एकाग्र आनन्दमग्न हो और जब किसी प्रकार की तीव्र अनुभूतियाँ हो रही हों , उसी समय भावों का सतत प्रवाह होने लगता है ; परन्तु सब लोग ऐसी स्थिति में सदा नहीं रहते । सामान्य लोगों के जीवन में ऐसी स्थिति कभी - कभी ही आती है । स्वयं कवि चकित होते हैं कि कविता- निर्माण के समय उनके हृदय में अच्छी - अच्छी उक्तियाँ और अलंकृत भाषा कहाँ से आ जाती है । आध्यात्मिक विचारक कहते हैं कि हमारा मूलरूप ज्ञान , शक्ति , आनन्द और सौन्दर्य का अक्षय भंडार है । इस बात की अनुभूति हमें इसलिए नहीं हो पाती है कि हम बहिर्मुख हैं , मायाबद्ध हैं , हमपर से माया का परदा नहीं उठ पाया है । जब कभी हम एकाग्र होते हैं , तब हमें ज्ञान और आनन्द अपने अंदर से ही प्राप्त होने लग जाता है । यह कहना भी सत्य ही है कि सृष्टि के आदि से अबतक के लोगों की विचार - तरंगें आकाश में व्याप्त हैं । जब व्यक्ति एकाग्र होता है और वह जिस प्रकृति का होता है , उस समय उसके हृदय में उसी प्रकार की आकाशीय विचार तरंगें संगृहीत होने लग जाती हैं । 

     जो विचार - तरंग हृदय में आ रही है , वह फिर कभी उसी रूप में आएगी या वह सदा स्मरण में रहेगी यह कहना कठिन है । इसीलिए लेखक अपनी आनेवाली भाव - तरंगों को तुरंत कागज में लिपिबद्ध कर लेते हैं । 

बाबा लालदास जी महाराज
बाबा लालदास जी महाराज

      निर्जन , कोलाहल - भय - बाधारहित , पवित्र स्थान और ठंढा मौसम पुस्तक लेखन के लिए उपयुक्त होता है । ध्यान - भजन , चिंतन - मनन और पुस्तक लेखन का सबसे अधिक उपयुक्त समय भोर ( ब्रह्मवेला ) ही है । किसी भी ऋतु में भोर में शीतलता रहती है । कुछ लेखक १-२ बजे रात तक जगकर लेखन कार्य करते रहते हैं और लेखन के बीच - बीच कुछ खाते - पीते भी रहते हैं । 

     पद्य बनाने के नियमों की व्याख्या करनेवाला शास्त्र छन्दःशास्त्र ( prosody ) कहलाता है । यह शास्त्र व्याकरण का ही एक अंग है । जिस तरह पहले कोई भाषा बनती है , तब उसके नियमों और सिद्धांतों को बतानेवाला व्याकरणशास्त्र , उसी प्रकार छन्दोबद्ध रचना के पीछे छन्द : शास्त्र बना है । छन्दः शास्त्र का अध्ययन किये बिना सर्वथा निर्दोष पद्य नहीं बनाया जा सकता । छन्दःशास्त्र से अनभिज्ञ लोग दूसरे पद्य का तर्ज दूसरे के मुख से सुनकर जो पद्य बनाते हैं , उसमें कुछ - न - कुछ त्रुटियाँ अवश्य हो जाती हैं ।  

     संस्कृत भाषा के छन्दःशास्त्र के प्रथम आचार्य थे पिंगल मुनि उनके ग्रंथ का नाम है - छन्दःसूत्र । आज ' पिंगलशास्त्र ' छन्दःशास्त्र का पर्याय बन गया है । 

     छन्द वास्तव में वे विशेष नियम हैं , जिनसे बँधकर भाषा प्रवाहमयी और रुचिकर हो जाती है ; परंतु छन्दोबद्ध रचना को भी ' छन्द ' कहकर पुकारा करते हैं ; जैसे कहा करते हैं- कोई छन्द सुनाइये । कहते हैं , छन्दू धातु में असुन् प्रत्यय लगाकर ' छन्दसू ' शब्द बनाया गया है । इसी छन्दस् का तद्भव रूप छन्द है । छन्द् धातु के कुछ अर्थ ये हैं प्रसन्न करना , फुसलाना , बहकाना , ढाँपना , बाँधना आदि । ' छन्द् ' धातु के अर्थों के आधार पर ही ' छन्द ' का अर्थ ' प्रसन्न करनेवाला , आच्छादन या बन्धन लिया जाता है । वास्तव में छन्द किसी उक्ति के वाक्यों को एक विशेष नियम में बाँध देता है । 

      छन्द की परिभाषा इस प्रकार भी दी जा सकती है - छंद भाषा की एक ऐसी रचना है , जिसमें एक विशेष नियम के अनुसार शब्दों की सजावट करके प्रवाह ( गति ) और रुचिरता उत्पन्न कर दी जाती है । वे विशेष नियम मात्राओं और वर्णों की निश्चित संख्या , लघु - गुरु वर्णों के क्रम , चरण , यति और अन्त्यानुप्रास से संबंध रखते हैं । 

     इस परिभाषा में पद्य को छन्द कहा गया है । इस तरह हम देखते हैं कि नियम और नियमबद्ध रचना - दोनों छन्द कहलाते हैं । छंद को वृत्त भी कहते हैं । ∆


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प्रभु प्रेमियों ! इस लेख में छंद क्या है? छंद का उदाहरण क्या है? छन्दों के प्रकार हैं? छंद का दूसरा नाम क्या है? हिन्दी में छन्द की परिभाषा, भेद और उदाहरण, हिंदी छंद पीडीएफ, छंद, छंद के, छंद का अर्थ, छंद की परिभाषा उदाहरण सहित, छंद के प्रकार,   इत्यादि बातों को  जाना. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार  का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है. जय गुरु महाराज.



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