LS01 व्याख्या 1 || श्री, सद्गुरु, सार, शिक्षा, श्रद्धा, प्रेम, सदाचार, गुरु - भक्ति आदि शब्दों को समझें
सद्गुरु की सार शिक्षा || व्याख्या भाग 1
प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु की सार शिक्षा पुस्तक के व्याख्या - भाग 1 में 'श्री सद्गुरू की सार शिक्षा , याद रखनी चाहिये । अति अटल श्रद्धा प्रेम से , गुरु - भक्ति करनी चाहिये ॥१॥' इस हरिगीतिका छंद का व्याख्या किया गया है. श्री शब्द की व्याख्या, सद्गुरु शब्द की व्याख्या, सार शब्द की व्याख्या अति सराहनीय है.
श्री सद्गुरु, सार, शिक्षा, श्रधा आदि शब्दों को समझें
व्याख्या भाग 1
श्री सद्गुरू की सार शिक्षा , याद रखनी चाहिये । अति अटल श्रद्धा प्रेम से , गुरु - भक्ति करनी चाहिये ॥१॥'
पद्यार्थ - बड़ी महिमावाले सद्गुरु की मुख्य शिक्षाओं को सदैव स्मरण में रखना चाहिए और अत्यन्त अटल श्रद्धा तथा प्रेम से उनकी भक्ति करनी चाहिए ॥१ ॥
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व्याख्याता |
[ यहाँ ' श्री ' शब्द श्रीमान् , श्रीमंत , श्रीमत , श्रीयुत या श्रीयुक्त का संक्षिप्त रूप है । यह आदर - सूचक शब्द पुरुष के नाम के पहले जोड़ा जाता है । सुहागिन स्त्री के नाम के पहले ' श्रीमती ' शब्द लगाया जाता है । ' श्रीमान् ' का अर्थ है - ऐश्वर्यवान् , धनवान् , सुन्दर , शोभायमान , श्रेष्ठ , तेजस्वी , यशस्वी , प्रतिष्ठित , कोई क्षमता रखनेवाला और कोई बड़प्पन , सद्गुण , विशेषता या अधिकार रखनेवाला ।
प्रत्येक व्यक्ति का एक सामान्य नाम होता है ; परन्तु लोग उसे अन्य अनेक नामों से भी पुकारा करते हैं ; जैसे किसी व्यक्ति का साधारण नाम : मोहन है । यदि वह कविता रचता है , तो लोग उसे ' कविजी ' कहते हैं । यह उसका गुणवाचक नाम हुआ । यदि वह अध्यापन कार्य करता है , तो लोग उसे ' मास्टर साहब ' कहकर पुकारते हैं , यह उसका व्यवसाय - सूचक नाम हुआ । उसका छोटा भाई उसे ' भाईजी ' कहकर संबोधित करता है , तो यह ' भाईजी ' शब्द उसका संबंधबोधक नाम हुआ । यहाँ ' सद्गुरु ' संबंधबोधक नाम है ।
' सद्गुरु ' शब्द का अर्थ है- सच्चा गुरु , सदाचारी गुरु , सच्ची युक्ति जाननेवाला गुरु । सच्चे गुरु की पहचान ' महर्षि मँहीँ - पदावली ' के ४४ वें तथा ४७ वे पद्य में भी बतलायी गयी है और दोनों के भाव एक - जैसे हैं । ४७ वे पद्य में कहा गया है कि जो संतमत की साधना - पद्धतियों की जानकारी रखते हों तथा उनका प्रतिदिन नियमित रूप से अभ्यास करते हों , अपने मन को पवित्र रखकर अर्थात् अपने - आपको सदाचारी बनाकर संसार में रहते हों , वैराग्य के मार्ग पर सदा ही बढ़ते रहते हों , सत्संग ( संतों की संगति ) से अत्यन्त प्रेम रखते हों , संतों का दृढ़ ज्ञान समझा सकते हों और सभी शंकाओं का अच्छी तरह समाधान कर सकते हों , उन्हें प्रेमपूर्वक सद्गुरु मानना चाहिए और उन्हें संत मानकर उनकी सेवा करनी चाहिए ।
जो जानै सो करै अभ्यासा । सत चित करि करै जग में बासा ॥ विरति पंथ महँ बढ़े सदाई । सत्सँग सों करै प्रीति महाई ॥ तोहे बोधे दृढ़ ज्ञान बताई । सब संशय तव देइ छोड़ाई ॥ ताको मानो गुरू सप्रीती । सेवो ताहि संत की नीती ॥ ( ४७ वाँ पद्य )
मुक्ती मारग जानते , साधन करते नित्त ॥ साधन करते नित्त , सत्तचित जग में रहते । दिन - दिन अधिक विराग , प्रेम सत्सँग सों करते ॥ दृढ़ ज्ञान समुझाय , बोध दे कुबुधि को हरते । संशय दूर बहाय , संतमत स्थिर करते ॥ ‘ में ही ' ये गुण धर जोई , गुरु सोई सतचित्त । मुक्ती मारग जानते , साधन करते नित्त ॥ ( पद्य - सं ० ४४ )
{ निम्नलिखित उद्धरणों में गुरुदेव ने सत्य गुरु या सद्गुरु की पहचान बतलायी है और असत् ( झूठे ) गुरु का तत्काल त्याग करने का आग्रह किया है-
“जीवन - काल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत में समाधि - समय लीन होती है और पिंड में बरतने के समय उन्मुनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है , ऐसे जीवन - मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं । ” ( सत्संग - योग , चौथा भाग , पाराग्राफ ८० ) “ पूरे और सच्चे सद्गुरु की पहचान अत्यन्त दुर्लभ है । फिर भी जो शुद्धाचरण रखते हैं , जो नित नियमित रूप से नादानुसंधान का अभ्यास करते हैं और जो सन्तमत को अच्छी तरह समझा सकते हैं , उनमें श्रद्धा रखनी और उनको गुरु धारण करना अनुचित नहीं । दूसरे - दूसरे गुण कितने भी में शुद्धता नहीं पायी जाए , तो वह गुरु अधिक हों ; परन्तु यदि आचरण मानने - योग्य नहीं । यदि ऐसे को पहले गुरु माना भी हो , तो उसका दुराचरण जान लेने पर उससे अलग रहना ही अच्छा है । उसकी जानकारी अच्छी होने पर भी आचरणहीनता के कारण उसका संग करना योग्य नहीं । और गुणों की अपेक्षा गुरु के आचरण का प्रभाव शिष्यों पर अधिक पड़ता है । और गुणों के सहित शुद्धाचरण का गुरु में रहना ही उसकी गरुता तथा गुरुता है , नहीं तो वह गरु ( गाय , बैल ) है । क्या शुद्धाचरण और क्या गुरु होनेयोग्य दूसरे - दूसरे गुण , किसी में भी कमी होने से वह झूठा गुरु है । " ( सत्संग - योग , चौथा भाग , पाराग्राफ ८२ ) "व्याख्या भाग 14 से" }
सार - सारभूत , मुख्य , सारांश । (सार- किसी पदार्थ का वास्तविक भाग , जिसपर वह अपना अस्तित्व बनाये रखता है ; किसी पदार्थ का उपयोगी भाग , सारांश , निष्कर्ष , आधार , जड़ जैसे शरीर का सार चेतन आत्मा है , सृष्टि का सार आदिनाद है , दूध का सार मक्खन है और नींबू का सार उसका रस है । "व्याख्या भाग 14 से") शिक्षा - सीख , उपदेश , जीवन में उतारनेयोग्य कोई अच्छी बात , जिससे हमारी भलाई या कल्याण हो । याद ( फा ० ) = स्मरण | सार शिक्षा = शिक्षाओं का सारांश । अति - बहुत , अत्यन्त । अटल = जो टले नहीं , स्थिर , एक - जैसा बना रहनेवाला ।
अविरल अटल स्वभक्ति मोहि को , दे पुरिये मन काम । ( पद्य - सं ० १२ )
' श्रद्धा ' का अर्थ है - दृढ़ विश्वास , किसी के प्रति महत्त्व बुद्धि , किसी के प्रति आदर तथा उसके पूज्य होने का भाव । किसी की महिमा देखने - सुनने से उसके प्रति श्रद्धा जग जाती है । पर्याप्त चिन्तन - मनन के बाद शास्त्र और गुरु के वचनों पर जो अटल विश्वास होता है , उसे भी श्रद्धा कहते हैं ।
दृढ़ परतीत प्रीत करि गुरु से , कर सत्संग सबेरे । ( पद्य - सं ० १२० )
दृढ़ विश्वासि बनिय गुरु पद के , सेवत रहिय सदाई । ( पद्य - सं ० ११० )
दृढ़ विश्वास यह कि गुरुदेव सर्वेश्वर के रूप हैं , वे सर्वसमर्थ हैं , उनकी शरण ग्रहण करने से हमारा उद्धार अवश्य होगा ।
सतगुरु इन्ह में अन्तर नाहीं । अस प्रतीत धरि रहु गुरु पाहीं ॥ ( इन्ह में = परमात्मा में )
गुरु - सेवा गुरु - पूजा करना । अनट बनट कछु मन नहिं धरना । ( पद्य - सं ० ४७ )
हरहु भव दुख देहु अमर सुख , सर्व दाता समरत्थ हो । जो तुम चाहिहु होइहिं सोई , सब कुछ तुम्हरे हत्थ हो ॥ ( पद्य - सं ० २७ )
बिनु तुव कृपा को बचि सकै , तिहु काल तीनहु लोक में । प्रभु ! शरण तुव आरत जना तू , सहाय जन के शोक में । ( पद्य - सं ० १६ )
तुम तजि और न कोई सहाई । ( पद्य - सं ० १८ )
प्रेम = हृदय का वह कोमल भाव , जिसके कारण हम अपने किसी प्रिय व्यक्ति को बार - बार स्मरण करते हैं , बार - बार उसे देखने की हमारी इच्छा होती है , उसकी हम निकटता चाहते हैं और स्वयं कष्ट उठाकर भी हम उसे सुख पहुँचाना चाहते हैं । ' अटल ' को प्रेम का भी विशेषण मान लेना चाहिए । अटल प्रेम = वह प्रेम जो कभी घटे नहीं , नित प्रति बढ़ता ही जाए । गुरु के प्रति अटल श्रद्धा और प्रेम तभी उत्पन्न हो सकता है , जब कोई अपने को सदैव मनोविकारों , पंच पापों तथा सांसारिक पदार्थों के लालच से बचाता रहे और सत्संग तथा स्तुति- विनती करता रहे ।
काम क्रोध मद मोह को त्यागो । तृष्णा तजि गुरु - भक्ति में लागो । ( पद्य - सं ० ४७ )
पाखण्ड अरुऽहंकार तजि , निष्कपट हो अरु दीन सब कुछ समर्पण कर गुरू की , सेव करनी चाहिये ।। ( पद्य - सं ० ७ )
इन लहरों की असर तें , गई सुबुद्धी खोइ । प्रेम दीनता भजन - सँग , तीनहु बने न कोई ॥ ( पद्य - सं ० ११ )
( इन लहरों की = मन की इन लहरों - विकारों की )
गुरु - भक्ति = गुरु की सेवा - शुश्रूषा । गुरु की शरीरिक सेवा करना , गुरु की आज्ञा का पालन करना , गुरु का गुण - गान करना , गुरु - मंत्र का जप उनके देखे हुए स्थूल रूप का मानस ध्यान करना तथा उनके ज्योति तथा शब्दरूपों का ध्यान करना और उनके आत्म - स्वरूप से मिलने के लिए शरीर के अंदर-ही-अंदर चलना भी गुरु - भक्ति के अंतर्गत मान लेनेयोग्य है । गुरुदेव कहते हैं कि जैसे स्नान करने के लिए गंगाजी की ओर चलना गंगाजी की भक्ति में दाखिल है , उसी प्रकार परमात्मा से मिलने के लिए । शरीर के अंदर में चलना परमात्मा की भक्ति है । विश्वास तथा प्रेम के बिना भक्ति नहीं हो सकती , इसीलिए ' महर्षि मेंहीं - पदावली ' के गुरु - विनती के पद्य में भक्ति के साथ प्रेम की भी याचना की गयी है--
प्रेम - भक्ति गुरु दीजिए , विनवौं कर जोड़ी । ( पद्य - सं ० ९ ) बिनु बिस्वास भगति नहिं ...। ' ( रामचरितमानस , उत्तरकांड )
गद्य और पद्य में जो संतमत - सिद्धान्त लिखे गये हैं , वे ही सद्गुरु की सार शिक्षाएँ हैं । उन्हें ही हमें स्मरण में रखने के लिए कहा गया है । नाव - जहाजों को रात में दिशा बताने के लिए समुद्र में प्रकाश - स्तंभ बना हुआ होता है । किसी विशिष्ट स्थान पर पहुँचने के लिए शहर के चौराहे पर तख्ती पर मार्ग - सूचक तीर का निशान बनाया गया होता है । संतमत सिद्धांत भी साधना के साम्राज्य में प्रवेश करने के इच्छुक साधकों के लिए प्रकाश स्तंभ और चौराहे पर बनाये गये तीर के निशान हैं । इन्हें भूल जाने से हम अपने लक्ष्य - पथ से भटककर अधोगति का मार्ग पकड़ सकते हैं । संतमत - सिद्धांत में हमें बतलाया गया है कि आवागमन के चक्र से छुड़ानेवाली ईश्वर भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए हमें क्या करना चाहिए , हमारे आचार - विचार कैसे हों और हमारे कर्त्तव्य तथा अकर्त्तव्य क्या हैं ।
संत तुलसी साहब ने भी सत्संग के उपदेशों को सुनकर और उनपर विचार करके दृढ़ता से उन्हें स्मरण में रखने के लिए कहा है-
सखी सीख सुनि - गुनि गाँठि बाँधौ । ठाठ ठट सतसंग करै । ( घटरामायण )
मनुष्य विचारों का फल है । वह जैसा चिंतन करता है , धीरे - धीरे वह वैसा ही बनता जाता है । उसका विचार क्रमशः उसकी वाणी तथा व्यवहार में उतरने लगता है । बुरे चिंतन से हम बुरे और अच्छे चिंतन से हम अच्छे बन जाते हैं । सद्विचार करते रहने से हमारा हृदय पवित्र होता है और हम बुरे कर्मों से बचते हैं , जिससे हमें भक्ति - मार्ग पर चलने का बल प्राप्त होता है । इसीलिए सत्संग के वचनों को सदैव दृढ़ता से स्मरण में रखने के लिए कहा जाता है । ] ∆
मृग - वारि सम सब ही प्रपंचन्ह , विषय सब दुख रूप हैं । निज सुरत को इनसे हटा , प्रभु में लगाना चाहिये ॥२ ॥ इस की व्याख्या पढ़ने के लिए 👉 यहाँ दवाएँ.
प्रभु प्रेमियों ! 'सदगुरु की सार शिक्षा' पुस्तक की पहली व्याख्या में श्री, सद्गुरु, सार, शिक्षा, श्रद्धा, प्रेम, सदाचार, गुरु - भक्ति आदि शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त की. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है.जय गुरु महाराज.
सद्गुरु की सार शिक्षा
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