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LS01 व्याख्या 2क || 'मृगतृष्णा के समान विषय-सुख है' इसे कथा-कहानी, दृष्टांत और उदाहरणों से समझें

श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा || व्याख्या भाग 2

     प्रभु प्रेमियों  ! 'श्रीद्गुरु की सार शिक्षा' पुस्तक के व्याख्या - भाग 2 में 'मृग - वारि सम सब ही प्रपंचन्ह , विषय सब दुख रूप हैं । निज सुरत को इनसे हटा , प्रभु में लगाना चाहिये ॥२॥' इस हरिगीतिका छंद की व्याख्या की गई है. इसमें पंच ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त ज्ञान को मृगतृष्णा के समान बताया गया है. इसकी पुष्टि कथा-कहानी, दृष्टांत और उदाहरणों द्वारा की गई है और परमात्मा की भक्ति करना ही मानव जीवन का लक्ष्य बताया गया है.


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व्याख्याता और गुरुदेव


मृगतृष्णा के समान विषय-सुख है'  इसे कथा-कहानी, दृष्टांत और उदाहरणों से समझें --


मृग - वारि सम सब ही प्रपंचन्ह , विषय सब दुख रूप हैं । निज सुरत को इनसे हटा , प्रभु में लगाना चाहिये ॥२ ॥ 

     भावार्थ- मृगजल ( मरुभूमि में सूर्य की तीखी किरणों के पर दूर में प्रतीत होनेवाले जलाशय ) की तरह सब कुछ ( सारा संसार ) झूठा है और पंच विषयों के सुख परिणाम में दुःख देनेवाले हैं । इसलिए संसार के पंच विषयों की आसक्ति से अपनी सुरत को हटाकर ईश्वर की भक्ति में लगाना चाहिए ॥२ ॥ 

व्याख्याता
व्याख्याता

   [ मृग - वारि = मृगजल , मृगतृष्णा का जल । रेगिस्तान में ( ऊसर मैदान में ) ज्येष्ठ - वैशाख के दिनों में कड़ी धूप के कारण दूर में जल होने का आभास होता है । प्यासा मृग उसे सच्चा जल समझकर अपनी प्यास बुझाने के लिए उधर दौड़ता है । आगे बढ़ने पर स्वभावतः वह जल और आगे दिखायी पड़ता हैं । इस प्रकार वह मृग झूठे जल के पीछे दौड़ते - दौड़ते परेशान हो जाता है और अंततः धरती पर गिरकर मर जाता है । ऐसा भ्रम पशु मात्र को होता है , केवल हिरन को ही नहीं । पशु तो पशु हुए - ज्ञानहीन प्राणी , नये स्थान पर कभी कभी विवेकशील प्राणी मनुष्य को भी ऐसा धोखा हो जाता है । 

     सिंह को पशुओं का राजा कहते हैं । इसका ही दूसरा नाम मृगेन्द्र है । मृगेन्द्र = मृग + इन्द्र , मृगों का राजा । इससे सिद्ध होता है कि ' मृग ' पशुमात्र को कहते हैं ; परन्तु ' मृग - वारि ' या ' मृग - तृष्णा का जल ' में ' मृग ' का अर्थ प्राय : हिरन ही लिया जाता है ; वैसे भी ' मृग ' का अर्थ प्रायः हिरन ही मान्य है । 

     सम = समान , जैसा । सब ही = सभी , सभी नाम - रूपात्मक जगत् । ' ही ' एक अव्यय है , इसका प्रयोग यहाँ ' सब ' पर बल डालने के लिए किया गया है । प्रपंचन्ह ( ' प्रपंच ' का बहुवचन ) = भ्रम , धोखे , झूठे । विषय = पंच ज्ञानेन्द्रियों से पकड़ में आनेवाले पदार्थ , जैसे - रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द । दुखरूप = दुःख का रूप , दुःख का कारण , दुःख का मूर्त्तिमान् रूप , दुःख देनेवाला । निज = अपना । सुरत = चेतन वृत्ति , ज्ञानमय तत्त्व चेतन जो शरीर तथा अंतःकरणों से घुल - मिल गया और जिसके आधार पर सारी इन्द्रियाँ काम करती हैं । इनसे = इन सबसे , इन समस्त नामरूपात्मक जगतों से , इन पंच विषयों से । हटा = हटाकर , अलग करके । प्रभु में लगाना चाहिए = परमात्मा के स्वरूप चिंतन में में या परमात्मा की भक्ति में लगाना चाहिए । परमात्मा और में कोई तात्त्विक अंतर नहीं है । इसलिए परमात्मा की भक्ति का अर्थ गुरु - भक्ति लेना चाहिए । गुरु - भक्ति के अर्थ के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है । 

     जिस प्रकार सूर्य की किरणों में भासनेवाला जल झूठा है , उसी प्रकार सारे नाम - रूपात्मक जगत झूठे हैं , ये भ्रम से सत्य भासते हैं । 

     स्वप्न में हम तरह - तरह के दृश्य देखते हैं और उस समय हम उन सभी दृश्यों को सत्य करके ही जानते हैं ; परन्तु जब हम जग जाते हैं , तो वे सारे दृश्य झूठे प्रमाणित हो जाते हैं । रात में हमें रस्सी में साँप का आभास हो जाता है , जब हम प्रकाश करते हैं और उस प्रकाश में हमें रस्सी की पहचान हो जाती है , तब रस्सी में सर्प होने का हमारा भ्रम दूर हो जाता है । इसी प्रकार जब हमें परमात्म - स्वरूप का ज्ञान हो जाएगा , तब संसार के सत्य होने का हमारा भ्रम खत्म हो जाएगा । 

     जैसे सूर्य की किरणों के आधार पर उनमें ही जल भासता है , उसी प्रकार परमात्मा की सत्यता के आधार पर उसमें ही संसार का आभास होता है । वस्तुतः संसार का अपना निजी अस्तित्व नहीं है ।

सपने होइ भिखारि नृप , रंक नाकपति होइ । जागें लाभ न हानि कछु , तिमि प्रपंच जिय जोड़ ॥ ( मानस , अयोध्याकांड )

झूठउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥ जेहि जानें जग जाइ हेराई जागे जथा सपन भ्रम जाई ॥ 

X            X             X             X              X 

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीन ग्यान गुन धामू । जासु सत्यता तें जड़ माया । भास सत्य इव सोह सहाया ।। रजत सीप महँ भास जिमि , जथा भानु कर बारि । जदपि मृषा तिहुँ काल सो , भ्रम न सकड़ कोठ टारि ॥ ( मानस , बालकाण्ड ) 

प्रभु केवल साँचा , अरु सब काँचा । ( पद्य - सं ० १२५ ) 

यह जग भरमक भीती । ( पद्य - सं ० १२२ ) 

     संसार और संसार के विषयों के पीछे दौड़ने से दुःख - ही - दुःख हाथ लगता है , जिस प्रकार सूर्य की किरणों में भासित होनेवाले जल के पीछे दौड़कर हिरन दुःख के सिवा और कुछ नहीं पाता । विषय झूठे हैं , इसलिए उनसे मिलनेवाले सुख सच्चे कैसे हो सकते हैं ! उनका उपभोग तो अंत में दुःख देनेवाला ही सिद्ध होता है । विषय - सुख दुःख की धाराएँ हैं , जिनमें युग - युगों से बहते हुए आकर हम अशान्त हो रहे हैं । 

     विषयों का सुख स्वल्प , क्षणभंगुर और परिवर्तनशील है , उनके पीछे हम जितने दौड़ते हैं , उतनी हमारी तृष्णा बढ़ती जाती है , कभी हमें तृप्ति नहीं मिल पाती । अतएव अंत में अतृप्त रहकर ही हमें संसार से गुजर जाना पड़ता है । इन विषयों को संसार में फंसानेवाला जाल कहा गया है ; ये कीचड़ रूप भी हैं , जिनमें धँसकर हम सभी मायाबद्ध हो गये हैं । यदि इनकी चाहना छोड़ दें , तो हम संसार से छुटकारा पा लें । 

     विषय को ' भ्रम की खाई ' की भी संज्ञा दी गयी है , इसमें गिर जाने से हमारा ज्ञान नष्ट हो जाता है । ज्ञान नष्ट हुआ मनुष्य मृतक - तुल्य ही है । इसलिए विषयों को विषवत् कहना भी उचित ही है । इनके सेवन से तरह - तरह के रोग उत्पन्न होते हैं । इसीलिए साधक शिष्यों के लिए आध्यात्मिक गुरु की हिदायत होती है कि इनसे बचकर रहो । शरीर , मन तथा इन्द्रियों के सुख तुम्हारे निज सुख नहीं हैं , आत्मसुख ही तुम्हारा निज सुख है , जो नित्य तथा परम संतुष्टि दायक है । इसे प्राप्त करने के लिए विषयों के फँसाव से तो तुम्हें छूटना ही पड़ेगा। लालचवश विषयों का भोग करनेवाला व्यक्ति मृत्यु का भोजन जा बनता है । क्रमश:


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प्रभु प्रेमियों ! 'सदगुरु की सार शिक्षा' पुस्तक की दूसरी व्याख्या में  पंच ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त ज्ञान को मृगतृष्णा के समान बताया गया है. इसकी पुष्टि कथा-कहानी, दृष्टांत और उदाहरणों द्वारा की गई है और परमात्मा की भक्ति करना ही मानव जीवन का लक्ष्य बताया गया है. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . जय गुरु महाराज.


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