Ad

Ad2

LS01 व्याख्या 14ङ || मँहीँ शब्द की अद्भुत व्याख्या || मँहीँ शब्द में संतमत सिद्धांत || मँहीँ शब्द विचार

सद्गुरु की सार शिक्षा || व्याख्या भाग 14

      प्रभु प्रेमियों  ! 'श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा' पुस्तक के व्याख्या - भाग 14 में 'यह सार है सिद्धान्त सबका , सत्य गुरु को सेवना । ' मँहीँ ' न हो कुछ यहि बिना , गुरु सेव करनी चाहिये ॥१४' इस हरिगीतिका छंद का व्याख्या किया गया है.  इसमें बताया गया है कि  मँहीँ शब्द की अद्भुत व्याख्या, मँहीँ नाम की विलक्षणता, मँहीँ शब्द में संतमत सिद्धांत, मँहीँ शब्द की परिभाषा और उदाहरण,  महर्षि मँहीँ बाबा का जीवनी, गुरु महाराज का फोटो, शब्द के प्रकार, मँहीँ शब्द की परिभाषा, मँहीँ  शब्द से आप क्या समझते है? मँहीँ शब्द की व्यंजना शब्द शक्ति, सामान्य शब्द और पारिभाषिक शब्द, मँहीँ शब्द विचार, इत्यादि  बातें।

स पोस्ट के पहले वाले व्याख्या भाग को पढ़ने के लिए    👉 यहां दबाए। 

सद्गुरु महर्षि मेंहीं और व्याख्याता
सद्गुरु महर्षि मेंहीं और ब्याख्याता


मँहीँ शब्द की अद्भुत व्याख्या, मँहीँ शब्द में संतमत सिद्धांत, मँहीँ शब्द विचार

LS01 व्याख्या 14ङ

शेषांश-

अब अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि गुरुदेव ‘ मेंहीं ' शब्द को ' मेँहीँ ' की तरह क्यों लिखते थे । 

     अब देखें कि ' मेँहीँ ' शब्द में संतमत का सार - सिद्धांत कैसे समाया हुआ है । ' मेँहीँ ' शब्द के द्वारा गुरुदेव का उपदेश है कि अपने स्वभाव को मेँहीँ ( कोमल , नम्र ) बनाओगे , तो तुम्हारे सब काम सम्पन्न हो जाएँगे । स्वभाव से यदि मोटे ( अहंकारी ) बनोगे , तो तुम्हारा सब कुछ बना - बनाया बिगड़ जाएगा- “ अहंकार से सब कछु बिनसे । ” ( पद्य - सं ० ४७ )

     परमात्मा मेँहीँ - से - मेंहीं है अर्थात् सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है । उसके पास जाने का सुषुम्ना मार्ग भी मेँहीँ है । ज्योति और नाद का जो मार्ग अंदर में है । सरत को मेंही ( महीन ) करने के लिए उसे इन्द्रियों के घाटों से समेटना बना हुआ है , वह भी मेँहीँ ( सूक्ष्म ) है । उसपर मेँहीँ सुरत ही चल सकती होगा , जबतक वह इन्द्रियों के घाटों में फंसी हुई रहेगी - बिखरकर मोटी बनी हुई रहेगी , तबतक वह सुखमन की मेँहीँ ( महीन ) नाल में प्रवेश नहीं कर सकेगी । पापों से बचकर सुरत को पवित्र तथा मेँहीँ बनाया जा सकता है । पापों से सहज रूप से बचने के लिए गुरु की सेवा करनी होगी । सुरत मेंही होकर भीतर धँसेगी और मेंहीं - से - मेंही नाद सारशब्द को पकड़कर परमात्मा में केन्द्रित हो सकेगी । संतों की युक्ति बड़ी मेंही है , वह संसार में आम तौर पर प्रकट नहीं है ।

सद्गुरु महर्षि मेंहीं
महर्षि मेंहीं

 ' मेँहीँ ' ' मेँहीँ  विन्दु - द्वार होइ , चैंचि दीजिये घर सुख की । ( पद्य - सं ० २१ ) 

सूक्ष्म सूरत सुषमन होइ शब्द में , दृढ़ से धरो ठहराई । ( पद्य - सं ० ७३ ) 

मेँहीँ ' में ही होय सकोगे , जाओगे वहि पार । पार गमन ही सार भक्ति है , लो यहि हिय में धार ॥ ( पद्य - सं ० १२४ )

मेँहीँ ' सहजहिं इन्हसे बचन चहो , गुरुपद टहल कमाहो ।( पद्य - सं ० १३२ )  

गुरु की यह युक्ति बड़ी मेँहीँ , ' मेँहीँ ' परगट संसार नहीं ।  ( पद्य - सं ० १०२ ) 

संतों का मेँहीँ मार्ग यह , ' मेँहीँ ' सुनो दे कान । ( पद्य - सं ० ४३ ) 

     साधक की बुद्धि बड़ी मेँहीँ होनी चाहिए , तभी वह कर्तव्य - अकर्तव्य , सार - असार , सत्य - असत्य और उचित - अनुचित का निर्णय कर सकेगा और परम मोक्ष के पथ पर आगे बढ़ सकेगा ।

 खरो तीक्ष्ण बुधि मोरि ना , पाणि जोड़ि कहुँ कूक । ( पद्य - सं ० ३ ) 

     सत्संग करते रहने से मेँहीँ बुद्धि प्राप्त होती है । इसलिए सत्संग करना बहुत आवश्यक है । 

     साधना करने के लिए शरीर को मेँहीँ ( क्षीण ) करना पड़ता है । स्थूल शरीर मोटा या भारी रहने पर उकड़ें आसन में बैठकर ध्यान करने में कठिनाई होती है , साँसें फूलने लगती हैं । साधक का पेट पचका हुआ - भीतर की ओर धँसा हुआ होना चाहिए । शरीर को मेंहीं करने के लिए हलका भोजन करना चाहिए , जिससे साधना करने में बल मिलेगा , शारीरिक तथा मानसिक स्फूर्ति आएगी , स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और बुद्धि भी तीव्र होगी ।  

बाबा लालदास जी महाराज
व्याख्याता

     अब ' मेँहीँ ' शब्द का दूसरा अर्थ दूसरे ढंग से बतलाया जाता है । ' मेँहीँ शब्द ' में ' और ' ही ' के योग से भी बना हुआ माना जा सकता है । ' मैं ' की संगति में ' ही ' ' हीँ ( अनुनासिक ) बन गया है । ' मैं ' का अर्थ है- अंदर , भीतर ; जैसे - राम घर में है अर्थात् राम घर के अंदर है । ' ही ' का प्रयोग किसी शब्द पर जोर डालने के लिए किया जाता है ; जैसे - राम घर में ही है । यहाँ ' ही ' से यह निश्चय व्यक्त होता है कि राम कहीं बाहर में नहीं , घर में है । इस प्रकार ' मेहीं ' का अर्थ हुआ- " जो अंदर ही है । ” 

     इस अर्थ में ' मेँहीँ ' शब्द के गर्भ में निम्नलिखित ज्ञान - रत्न निहित हैं-- हम शरीर के भीतर हैं ; परम प्रभु परमात्मा भी भीतर ही है । सारी सुख - शान्ति , समस्त कल्याणकारी तत्त्व , सारी उन्नतियों की साज - सामग्री , नाना प्रकार की शक्तियाँ , सारी विद्याएँ , सारे देवता , सारे तीर्थ और संपूर्ण विश्व - ब्रह्मांड अपने ही भीतर हैं । बाहर में जो कुछ भी दिखलायी पड़ता है , वह भीतर भी दिखलायी पड़ता है । पिंड ब्रह्मांड का लघु रूप है । भीतर धँसकर किसी भी प्रकार की योग्यता प्राप्त की जा सकती है । जो अत्यधिक बहिर्मुख होता है , उससे कुछ भी बढ़िया काम नहीं हो पाता । वेद - वेदान्तों और संतों के मत में विशेषकर यही कहा गया है कि अंतर्मुख होओ । अंतर्मुख होने से हम इन्द्रिय ग्रामों से छूटते हुए आगे बढ़ते हैं और अंत में मोक्ष की प्राप्ति कर लेते हैं । 

     जब परमात्मा शरीर के भी भीतर है , तो उसे खोजने के लिए हमें आँखें के बंद करनी होंगी , पहले शरीर के ही भीतर उसके व्यक्त रूप संत सद्गुरु नाम - रूप का मानस जप - ध्यान करना होगा । परमात्मा की प्राप्ति के लिए । बाहर का कोई भी साधन करना व्यर्थ ही श्रम उठाना है । हम स्वयं सुखस्वरूप हैं और शरीर के भीतर हैं , इसलिए बाहरी पदार्थों के सुखों से विमुख होकर हमें शरीर के भीतर की ओर अपनी वृत्तियों को मोड़ना चाहिए । अंतर्मुखता के साध न से हमारी लौकिक और पारलौकिक - सभी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं । 

खोजो पंथी पंथ , तेरे घट भीतरे । 
तू अरु तेरो पीव , भी घट ही अंतरे ॥ 
तू यात्री पीव घर को , चलन जो चाहहू । 
तो घटहि में राह निहारु , विलंब न लावहू
 ॥ ( पद्य - सं ० ५१ ) 

 जोई ब्रह्मांड सोइ पिंड , अंतर कछु अहड़ नहीं । ( पद्य - सं ० ६५ ) 
जीव उद्धार का द्वार पुकार कहा , घट भीतर ही सत संतों ने । ( पद्य - सं ० १०३ ) 

पिंड में ब्रह्मांड दरस हो , बाहर में क्या फिरे । ( पद्य - सं ० १ ९ ६ ) 

बाहर के पट बंद करो हो , अंतर पट खोलो भाई ( पद्य - सं ०७३ ) 

देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्वदेवताः । देहस्था : सर्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते ॥ ( ज्ञानसंकलिनी तंत्र )

     गुरुदेव का नाम होने से यह ' मेँहीँ ' शब्द महापवित्र है । यह महामंत्र और महावाक्य है । कोई पवित्र हृदयवाला व्यक्ति ही इसकी पवित्रता और अर्थवत्ता का सतही तौर पर बोध कर सकता है ।क्रमशः


इस पोस्ट का शेष भाग पढ़ने के लिए    👉 यहां दबाएं


     प्रभु प्रेमियों ! 'सदगुरु की सार शिक्षा' पुस्तक की इस व्याख्या में   मँहीँ शब्द की अद्भुत व्याख्या, मँहीँ नाम की विलक्षणता, मँहीँ शब्द में संतमत सिद्धांत, मँहीँ शब्द की परिभाषा और उदाहरण,  महर्षि मँहीँ बाबा का जीवनी, गुरु महाराज का फोटो, शब्द के प्रकार, मँहीँ शब्द की परिभाषा, मँहीँ  शब्द से आप क्या समझते है? मँहीँ शब्द की व्यंजना शब्द शक्ति, सामान्य शब्द और पारिभाषिक शब्द, मँहीँ शब्द विचार, इत्यादि बातों के बारे में जानकारी प्राप्त की. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है.जय गुरु महाराज.


सद्गुरु की सार शिक्षा 

 
प्रभु प्रेमियों ! 'सद्गुरु की सार शिक्षा' पुस्तक के बारे में विशेष जानकारी के लिए     👉 यहां दबाएं.

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के लिए  शर्तों के बारे में जानने के लिए 👉   यहां दवाएं

---×---

LS01 व्याख्या 14ङ || मँहीँ शब्द की अद्भुत व्याख्या || मँहीँ शब्द में संतमत सिद्धांत || मँहीँ शब्द विचार LS01 व्याख्या 14ङ || मँहीँ शब्द की अद्भुत व्याख्या || मँहीँ शब्द में संतमत सिद्धांत || मँहीँ शब्द विचार Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/20/2022 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

सत्संग ध्यान से संबंधित प्रश्न ही पूछा जाए।

Ad

Blogger द्वारा संचालित.