LS01 व्याख्या 14ङ || मँहीँ शब्द की अद्भुत व्याख्या || मँहीँ शब्द में संतमत सिद्धांत || मँहीँ शब्द विचार
सद्गुरु की सार शिक्षा || व्याख्या भाग 14ङ
मँहीँ शब्द की अद्भुत व्याख्या, मँहीँ शब्द में संतमत सिद्धांत, मँहीँ शब्द विचार
LS01 व्याख्या 14ङ
शेषांश-
अब अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि गुरुदेव ‘ मेंहीं ' शब्द को ' मेँहीँ ' की तरह क्यों लिखते थे ।
अब देखें कि ' मेँहीँ ' शब्द में संतमत का सार - सिद्धांत कैसे समाया हुआ है । ' मेँहीँ ' शब्द के द्वारा गुरुदेव का उपदेश है कि अपने स्वभाव को मेँहीँ ( कोमल , नम्र ) बनाओगे , तो तुम्हारे सब काम सम्पन्न हो जाएँगे । स्वभाव से यदि मोटे ( अहंकारी ) बनोगे , तो तुम्हारा सब कुछ बना - बनाया बिगड़ जाएगा- “ अहंकार से सब कछु बिनसे । ” ( पद्य - सं ० ४७ )
परमात्मा मेँहीँ - से - मेंहीं है अर्थात् सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है । उसके पास जाने का सुषुम्ना मार्ग भी मेँहीँ है । ज्योति और नाद का जो मार्ग अंदर में है । सरत को मेंही ( महीन ) करने के लिए उसे इन्द्रियों के घाटों से समेटना बना हुआ है , वह भी मेँहीँ ( सूक्ष्म ) है । उसपर मेँहीँ सुरत ही चल सकती होगा , जबतक वह इन्द्रियों के घाटों में फंसी हुई रहेगी - बिखरकर मोटी बनी हुई रहेगी , तबतक वह सुखमन की मेँहीँ ( महीन ) नाल में प्रवेश नहीं कर सकेगी । पापों से बचकर सुरत को पवित्र तथा मेँहीँ बनाया जा सकता है । पापों से सहज रूप से बचने के लिए गुरु की सेवा करनी होगी । सुरत मेंही होकर भीतर धँसेगी और मेंहीं - से - मेंही नाद सारशब्द को पकड़कर परमात्मा में केन्द्रित हो सकेगी । संतों की युक्ति बड़ी मेंही है , वह संसार में आम तौर पर प्रकट नहीं है ।
महर्षि मेंहीं |
' मेँहीँ ' ' मेँहीँ विन्दु - द्वार होइ , चैंचि दीजिये घर सुख की । ( पद्य - सं ० २१ )
सूक्ष्म सूरत सुषमन होइ शब्द में , दृढ़ से धरो ठहराई । ( पद्य - सं ० ७३ )
' मेँहीँ ' में ही होय सकोगे , जाओगे वहि पार । पार गमन ही सार भक्ति है , लो यहि हिय में धार ॥ ( पद्य - सं ० १२४ )
' मेँहीँ ' सहजहिं इन्हसे बचन चहो , गुरुपद टहल कमाहो ।( पद्य - सं ० १३२ )
गुरु की यह युक्ति बड़ी मेँहीँ , ' मेँहीँ ' परगट संसार नहीं । ( पद्य - सं ० १०२ )
संतों का मेँहीँ मार्ग यह , ' मेँहीँ ' सुनो दे कान । ( पद्य - सं ० ४३ )
साधक की बुद्धि बड़ी मेँहीँ होनी चाहिए , तभी वह कर्तव्य - अकर्तव्य , सार - असार , सत्य - असत्य और उचित - अनुचित का निर्णय कर सकेगा और परम मोक्ष के पथ पर आगे बढ़ सकेगा ।
खरो तीक्ष्ण बुधि मोरि ना , पाणि जोड़ि कहुँ कूक । ( पद्य - सं ० ३ )
सत्संग करते रहने से मेँहीँ बुद्धि प्राप्त होती है । इसलिए सत्संग करना बहुत आवश्यक है ।
साधना करने के लिए शरीर को मेँहीँ ( क्षीण ) करना पड़ता है । स्थूल शरीर मोटा या भारी रहने पर उकड़ें आसन में बैठकर ध्यान करने में कठिनाई होती है , साँसें फूलने लगती हैं । साधक का पेट पचका हुआ - भीतर की ओर धँसा हुआ होना चाहिए । शरीर को मेंहीं करने के लिए हलका भोजन करना चाहिए , जिससे साधना करने में बल मिलेगा , शारीरिक तथा मानसिक स्फूर्ति आएगी , स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और बुद्धि भी तीव्र होगी ।
व्याख्याता |
अब ' मेँहीँ ' शब्द का दूसरा अर्थ दूसरे ढंग से बतलाया जाता है । ' मेँहीँ शब्द ' में ' और ' ही ' के योग से भी बना हुआ माना जा सकता है । ' मैं ' की संगति में ' ही ' ' हीँ ( अनुनासिक ) बन गया है । ' मैं ' का अर्थ है- अंदर , भीतर ; जैसे - राम घर में है अर्थात् राम घर के अंदर है । ' ही ' का प्रयोग किसी शब्द पर जोर डालने के लिए किया जाता है ; जैसे - राम घर में ही है । यहाँ ' ही ' से यह निश्चय व्यक्त होता है कि राम कहीं बाहर में नहीं , घर में है । इस प्रकार ' मेहीं ' का अर्थ हुआ- " जो अंदर ही है । ”
इस अर्थ में ' मेँहीँ ' शब्द के गर्भ में निम्नलिखित ज्ञान - रत्न निहित हैं-- हम शरीर के भीतर हैं ; परम प्रभु परमात्मा भी भीतर ही है । सारी सुख - शान्ति , समस्त कल्याणकारी तत्त्व , सारी उन्नतियों की साज - सामग्री , नाना प्रकार की शक्तियाँ , सारी विद्याएँ , सारे देवता , सारे तीर्थ और संपूर्ण विश्व - ब्रह्मांड अपने ही भीतर हैं । बाहर में जो कुछ भी दिखलायी पड़ता है , वह भीतर भी दिखलायी पड़ता है । पिंड ब्रह्मांड का लघु रूप है । भीतर धँसकर किसी भी प्रकार की योग्यता प्राप्त की जा सकती है । जो अत्यधिक बहिर्मुख होता है , उससे कुछ भी बढ़िया काम नहीं हो पाता । वेद - वेदान्तों और संतों के मत में विशेषकर यही कहा गया है कि अंतर्मुख होओ । अंतर्मुख होने से हम इन्द्रिय ग्रामों से छूटते हुए आगे बढ़ते हैं और अंत में मोक्ष की प्राप्ति कर लेते हैं ।
जब परमात्मा शरीर के भी भीतर है , तो उसे खोजने के लिए हमें आँखें के बंद करनी होंगी , पहले शरीर के ही भीतर उसके व्यक्त रूप संत सद्गुरु नाम - रूप का मानस जप - ध्यान करना होगा । परमात्मा की प्राप्ति के लिए । बाहर का कोई भी साधन करना व्यर्थ ही श्रम उठाना है । हम स्वयं सुखस्वरूप हैं और शरीर के भीतर हैं , इसलिए बाहरी पदार्थों के सुखों से विमुख होकर हमें शरीर के भीतर की ओर अपनी वृत्तियों को मोड़ना चाहिए । अंतर्मुखता के साध न से हमारी लौकिक और पारलौकिक - सभी इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं ।
तू अरु तेरो पीव , भी घट ही अंतरे ॥
तू यात्री पीव घर को , चलन जो चाहहू ।
तो घटहि में राह निहारु , विलंब न लावहू ॥ ( पद्य - सं ० ५१ )
पिंड में ब्रह्मांड दरस हो , बाहर में क्या फिरे । ( पद्य - सं ० १ ९ ६ )
बाहर के पट बंद करो हो , अंतर पट खोलो भाई ( पद्य - सं ०७३ )
देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्वदेवताः । देहस्था : सर्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते ॥ ( ज्ञानसंकलिनी तंत्र )
गुरुदेव का नाम होने से यह ' मेँहीँ ' शब्द महापवित्र है । यह महामंत्र और महावाक्य है । कोई पवित्र हृदयवाला व्यक्ति ही इसकी पवित्रता और अर्थवत्ता का सतही तौर पर बोध कर सकता है ।क्रमशः
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