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LS01 व्याख्या 2ख || पंच ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त ज्ञान मृगतृष्णा के समान झूठा है इसे कथा-दृष्टांत से समझें

 श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा || व्याख्या भाग 2ख

     प्रभु प्रेमियों  ! 'श्रीद्गुरु की सार शिक्षा' पुस्तक के व्याख्या - भाग 2ख में 'मृग - वारि सम सब ही प्रपंचन्ह , विषय सब दुख रूप हैं । निज सुरत को इनसे हटा , प्रभु में लगाना चाहिये ॥२॥' इस हरिगीतिका छंद की व्याख्या की गई है. इसमें पंच ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त ज्ञान को मृगतृष्णा के समान झूठा बताया गया है. इसकी पुष्टि कथा-कहानी, दृष्टांत और उदाहरणों द्वारा की गई है और परमात्मा की भक्ति करना ही मानव जीवन का लक्ष्य बताया गया है.


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व्याख्याता और गुरु महाराज

पंच ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त ज्ञान मृगतृष्णा के समान झूठा है इसे कथा-दृष्टांत से समझें

शेषांश-

व्याख्याता
व्याख्याता

विषय को ' भ्रम की खाई ' की भी संज्ञा दी गयी है , इसमें गिर जाने से हमारा ज्ञान नष्ट हो जाता है । ज्ञान नष्ट हुआ मनुष्य मृतक - तुल्य ही है । इसलिए विषयों को विषवत् कहना भी उचित ही है । इनके सेवन से तरह - तरह के रोग उत्पन्न होते हैं । इसीलिए साधक शिष्यों के लिए आध्यात्मिक गुरु की हिदायत होती है कि इनसे बचकर रहो । शरीर , मन तथा इन्द्रियों के सुख तुम्हारे निज सुख नहीं हैं , आत्मसुख ही तुम्हारा निज सुख है , जो नित्य तथा परम संतुष्टि दायक है । इसे प्राप्त करने के लिए विषयों के फँसाव से तो तुम्हें छूटना ही पड़ेगा। लालचवश विषयों का भोग करनेवाला व्यक्ति मृत्यु का भोजन जा बनता है । 

रवि कर जल मृग देखि दौड़ि दुख पावै । तिमि जग सुख मध दुख कुंड मोहि को नावै ॥ ( पद्य - सं ० २८

मृग तृष्णा जल सम सुख याकी । तुम मृग ललचहु देखि एकाकी ॥ याते भव दुख सहहु महाई । बिन सतगुरु कहो कौन सहाई ॥ ( पद्य - सं ० ४७

विषय पसारा , सकल असारा , दुखमय धारा हो । ( पद्य - सं ० १२९

अगहन दाहन प्रकृति भोगन , गहन को जो धावहीं । क्लेश पावहिं हारि आवहिं , कबहुँ नहिं तृपतावहीं ॥ ( पद्य - सं ० १३७ )  

सब विषय पसारा , भव की जारा , या में नहिं आराम ।( पद्य - सं ० १२५    ( जारा = जाल , बंधन ) 

कीशं समं मोह मुट्ठी को बाँधी । कीचड़ विषय फँसि भयो है उपाधी ॥ ( पद्य - सं ० १३

तन - सुख मन सुख , इन्द्री - सुख सब दुख , तजि दे विषय दुखदाई , भ्रम खाई हो भाई । ( पद्य - सं ० १०७

दस दिशि विषय - जाल से हूँ घेरो , टरत नहीं अज्ञान । ( पद्य - सं ० २३

तन मन गुण इन्द्रिन का बंदी । होइ भोगुँ विष रस आनंदी । ( पद्य - सं ० १८

सभी इन्द्रिन को भोग , गुरु कहते हैं रोग । ( पद्य - सं ० ९ ० )

भोगन सकल प्रत्यक्ष रोगन , जानिके हटते रहो । ( पद्य - सं ० १३७

तन - मन - सुख है ना सुख तेरो , आतम सुख निज तेरे । तू तन - मन - सुख निज कै जान्यो , भयो काल को चेरे ॥ ( पद्य सं ० १२०

विषय भोग मन ललचि - ललचि धरे , जाय पड़े यम जेवा । ( पद्य - सं ० ११२ )    ( यम जेवा = मृत्यु का भोजन )

अनासक्त जग में रहो भाई । दमन करो इन्द्रिन दुखदाई ॥( पद्य - सं ० ४७

      विषय - सुख को अज्ञानतावश सच्चा सुख समझकर उसकी प्राप्ति के उद्योग में हमें तरह-तरह के अनैतिक कर्म भी करने पड़ते हैं ; क्योंकि वह संसार में सहज ही प्राप्त नहीं होता । उसकी आसक्ति में हम संसार से ऊपर नहीं उठ पाते , जिससे हम सदैव दैहिक , दैविक और भौतिक तापों से संतप्त होते रहते हैं । इसीलिए विषय सुखों को दुःखरूप कहा गया है । ' महोपनिषद् ' में भोग की इच्छा को बंधन और उसके त्याग को मोक्ष कहा गया है ।

भोगेच्छा मात्रको बंधस्तत्त्यागो मोक्ष उच्यते । 

     सच्चा सुख मन की स्थिरता में प्राप्त होता है और मन की स्थिरता इच्छाओं के त्याग से प्राप्त होती है । इसे एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है । मान लीजिए , हमारे गाँव में पहले - पहल किसी ने मोटर साइकिल खरीदी । उसे देखकर हमारे मन में भी मोटर साइकिल का अभाव खटकने लगा । अभाव के अनुभव से तो दुःख होता ही है । उस दुःख को दूर करने के लिए हमने मोटर साइकिल खरीदने की इच्छा की । इच्छा करते ही मन चंचल हो गया । मन की चंचलता का दुःख ढोते हुए हम व्यग्रतापूर्वक रुपये जुटाने में लग गये । येन केन प्रकारेण रुपये जुटाकर जब मोटर साइकिल खरीद लाये , तब हमारा मन स्थिर हो गया और हमें चैन का अनुभव हुआ । ऐसा इसलिए हुआ कि मोटर साइकिल खरीदकर हम उसके खरीदने की इच्छा से मुक्त हो गये । दो - चार वर्ष के बाद यदि गाँव में अनेक मोटर साइकिलें आ जाती हैं या कोई मोटर - कार खरीद लाता है , तो हमारा मोटर साइकिल से मिलनेवाला सुख फीका हो जाता है और हमारा ध्यान मोटर - कार पर चला जाता है । अब हम उसकी प्राप्ति में सुख मानने लगते हैं और उसकी खरीद लग जाते हैं । विचारणीय है कि यदि मोटर साइकिल की प्राप्ति सुख होता , तो फिर हमें मोटरकार खरीदने की इच्छा क्यों होती ? इससे मालूम होता है कि मन को भ्रम से विषयों में और सांसारिक वस्तुओं में सुख के प्रयत्न में ही का आभास होता है । 

     अपने - आपमें नहीं रहने के कारण हमें भौतिक वस्तुओं का अभाव खटकता है और हम उनकी प्राप्ति से सुखी होने का स्वप्न देखने लगते हैं । सच्चा आनंद प्राप्त करने के लिए बाहरी वस्तुओं पर आश्रित होना आवश्यक  नहीं है । हमारी चेतनवृत्ति स्वयं सुखस्वरूप है । उसका सुख अंतर्मुख होकर लिया जा सकता है । अंतर्मुख साधु - संत भौतिक वस्तुओं का थोड़ा ही उपभोग  करते हैं , वह भी मात्र शरीर - निर्वाह के लिए , न कि शारीरिक तथा मानसिक सुख के लिए ।   

     विषयों में जो थोड़ा सुख मिलता है , वह भी उन विषयों में अपने मन को पूरी तरह जोड़े बिना प्राप्त नहीं कर सकते और मन का जोड़ना उसकी स्थिरता र के बिना नहीं हो सकता । यदि हमारे आस - पास में कोई मधुर गीत गा रहा है ; परन्तु प्ररंतु हमारा मनोयोग उस गीत में न होकर पास के किसी साथी की बातों में होता है , तो हम उस गीत का आनंद नहीं ले पाते । हम भोजन कर रहे हैं ; परन्तु हमारे मन में ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन जाने की व्यग्रता हो , तो हम न अधिक भोजन कर सकेंगे और न उसके स्वाद का आनंद उठा पाएँगे । 

     हमारी इन्द्रियों में एक ही साथ बहुत अधिक विषय - सुख लेने की शक्ति भी नहीं है । मधुर गीत सुनना सबको प्रिय लगता है ; परन्तु यदि वह बहुत देर तक सुना जाए , तो वह अच्छा नहीं लगने लगता है । यदि उसे ही थोड़ा - थोड़ा प्रतिदिन सुना जाए , तो फिर वह अप्रिय नहीं लगेगा ।

     विषय - सुख में तृप्ति नहीं होती । बहुत मिठाई खा लेने पर भी कुछ घंटों के बाद फिर मिठाई खाने की इच्छा जग सकती है । 

    विषय का सुख खंडित होता है , वह लगातार नहीं लिया जा सकता । यदि उसे लगातार लेने का प्रयत्न करेंगे , तो शारीरिक और मानसिक रूप से रोगग्रस्त हो जाएँगे । आम का स्वाद सदैव बनाये रखने के लिए हम कितने आम और कबतक खाते रह सकते हैं ! अंत में पेट फटेगा ही और उसका जाएगा । खाना छोड़ना ही पड़ेगा । खाना छोड़ते ही स्वाद भी  लुप्त हो जाएगा।

     ' कठोपनिषद् ' में लिखा है कि " परमात्मा ने हमारी इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है । इसीलिए वे बाहर - ही - बाहर देखती हैं । " बाहर - ही - बाहर देखने का कारण यह भी है कि उनके विषय भी बाहरी संसार में ही हैं और उनमें इन्द्रियों को खींचने की बड़ी शक्ति है । उन विषयों को देखते ही सहसा हम मोहग्रस्त हो जाते हैं और वे हमें सुखस्वरूप मालूम पड़ने लगते हैं , जिससे हम जबरन् उसकी ओर खिंच जाते हैं । वृक्ष पर शांत बैठा हुआ गीध मुर्दे को देखकर जिस तेजी से उसकी ओर झपटता है , उसी तेजी से हमारा मन प्रिय विषय के सामने उपस्थित होने पर , यदि बीच में कोई बाधा नहीं हो तो , उसकी ओर टूट पड़ता है । प्रत्यक्ष विषय की ओर होनेवाले मन के ऐसे तीव्र खिंचाव को रोक पाना साधारण काम नहीं है । 

मन अति कठिन कराल प्रभू हो , तजय न विषय विकार । ( पद्य - सं ० २२ )

     विषयों में लगने से हमारी चेतनवृत्ति बहिर्मुखी हो जाती है और इससे हमारे आत्मबल का क्षय होता है । यदि विषयों से कोई उदासीन रह पाता है , तो उसे ध्यान - भजन करने का बल प्राप्त हो जाता है । उपनिषद् में कहा गया है कि बलहीन आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकते । विषयों का लगाव ही हमें बलहीन कर देता है , जिससे आत्म - साक्षात्कार करने का हमारा उत्साह नहीं हो पाता । ] ∆


अव्यक्त व्यापक व्याप्य पर जो , राजते सबके परे । उस अज अनादि अनन्त प्रभु में , प्रेम करना चाहिये ॥३ ॥ इसकी व्याख्या पढ़ने के लिए   👉 यहाँ दवाएँ.


     प्रभु प्रेमियों ! 'सदगुरु की सार शिक्षा' पुस्तक की इस  व्याख्या से पंच ज्ञानेंद्रियों से प्राप्त ज्ञान को मृगतृष्णा के समान झूठा जानकर,  परमात्मा की भक्ति में लगना ही  मानव जीवन का लक्ष्य है. को अच्छे से समझ गए हैं. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है.जय गुरु महाराज.


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