श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा || व्याख्या भाग 3
प्रभु प्रेमियों ! 'श्रीद्गुरु की सार शिक्षा' पुस्तक के व्याख्या - भाग 2ख में ' अव्यक्त व्यापक व्याप्य पर जो , राजते सबके परे । उस अज अनादि अनन्त प्रभु में , प्रेम करना चाहिये ॥३ ॥' इस हरिगीतिका छंद की व्याख्या की गई है. इसमें अव्यक्त, व्यापक, व्याप्य, अज अनादि, परमात्म-प्रेम आदि शब्दों को विस्तार से समझाया गया है.
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अव्यक्त, व्यापक, व्याप्य, अज अनादि, परमात्म-प्रेम आदि शब्दों को विस्तार से समझें-
भावार्थ- जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आने के योग्य , सर्वव्यापक ( समस्त प्रकृति - मंडलों में अंश - रूप से फैला हुआ ) और व्याप्य से परे ( समस्त प्रकृति मंडलों से बाहर , सर्वव्यापकता के परे ) अपरिमित रूप से विद्यमान है , उस अजन्मा , अनादि ( अपूर्व ) और आदि - अन्त - रहित परमात्मा से प्रेम करना चाहिये || ३ ||
व्याख्याता |
[ अव्यक्त = जो व्यक्त नहीं, जो इन्द्रियगोचर नहीं है । पदावली में ' अव्यक्त ' शब्द परमात्मा , आदिनाद और जड़ात्मिका मूल प्रकृति के लिए भी प्रयुक्त हुआ है ; देखिये -
'अव्यक्त अनादि अनन्त अजय , अज आदिमूल परमातम जो ।' ' सत् चेतन अव्यक्त वही , व्यक्तों में व्यापक नाम वही । ' ( पद्य - सं ० ५ )
नहिं मूल प्रकृति जो अव्यक्त अगम अस । ( पद्य - सं ० ४२ )
महाकारण अव्यक्त जड़ात्मक प्रकृति जोई । ( पद्य - सं ० ४६ )
( महाकारण जड़ात्मिका मूल प्रकृति ) चेतन प्रकृति भी अव्यक्त है । यहाँ ' अव्यक्त ' परमात्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है । परमात्मा को परम अव्यक्त कह सकते हैं ।
व्यापक = समस्त प्रकृति - मंडलों में अति सघनता से फैला हुआ परमात्मा का अंश , पूर्ण ब्रह्म ।
व्याप्य = जिसमें कुछ फैलकर रह सके । परमात्मा का अंश जड़ और चेतन - दोनों प्रकृतियों में फैलकर रहता है , अतएव ' व्याप्य ' यहाँ दोनों प्रकृति - मंडलों के लिए प्रयुक्त हुआ है । पर - ऊपर , पार , बाहर । जो - परमात्मा के लिए प्रयुक्त संबंध - वाचक सर्वनाम । राजते = विराजते हैं , रहते हैं , शोभा पाते हैं , विद्यमान हैं । परे = ऊपर , बाहर ।
अज - जो जन्म नहीं लेता , शरीर धारण नहीं करता , जो किसी से जनमा हुआ नहीं हो ।
अनादि ( न + आदि - अन् + आदि ) = आदि - रहित , उत्पत्ति - रहित, जिसके पूर्व दूसरा कुछ भी नहीं हो , जिसका आरंभ नहीं बताया जा सके । परमात्मा के आदि में उससे भिन्न दूसरा कोई तत्त्व नहीं था । इसीलिए वह अनादि है । वह कहाँ है और कबसे है- यह नहीं बताया जा सकता , क्योंकि वह देश और काल में नहीं है , देश - काल से परे है । देश और काल उसके बहुत पीछे प्रकृति के बनने पर बने हैं । इस प्रकार देश - काल की भी दृष्टि से परमात्मा अनादि है ।
अनन्त ( अन् अन्त - न + अन्त ) = अन्त - रहित । परमात्मा का आदि - अंत नहीं है , तो फिर मध्य कैसे होगा ! प्रेम करना चाहिए = प्रेम करना उचित है । आदिनाद और समस्त प्रकृति मंडलों में व्यापक होकर परमात्मा उनसे बाहर कितना अधिक है- कहा नहीं जा सकता ।
' अव्यक्त व्यापक व्याप्य पर जो , राजते सबके परे ।'- इस पंक्ति से परमात्मा के अगोचर , सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के परे होने का भाव व्यक्त होता है । पदावली के प्रथम पद्य में भी परमात्मा को ' व्याप्य व्यापक पार में कहा गया है । इस पद्य में बतलाया गया है कि परमात्मा का स्वरूप ऐसा है और ऐसे स्वरूप तक पहुँचना ही हमारा अन्तिम लक्ष्य होना चाहिए ।
गुरु - भक्ति करके आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेने पर परमात्मा की भी प्राप्ति हो जाएगी । परमात्मा से एकमेकता प्राप्त कर लेना उसके प्रति पूर्ण प्रेम का होना समझा जाता है । परमात्मा अव्यक्त , इसलिए पहले - पहल उससे प्रेम करना कठिन है । पहले तो गुरु से ही प्रेम करना होगा । ] ∆
जीवात्म प्रभु का अंश है , जस अंश नभ को देखिये । घट मठ प्रपंचन्ह जब मिटैं , नहिं अंश कहना चाहिये ॥४ ॥ इस छंद का व्याख्या पढ़ने के लिए 👉 यहां दवाएँ.
प्रभु प्रेमियों ! 'सदगुरु की सार शिक्षा' पुस्तक की इस व्याख्या में अव्यक्त, व्यापक, व्याप्य, अज अनादि, परमात्म-प्रेम आदि शब्दों का क्या महत्व है और परमात्मा के लिए ये कैसे प्रयोग किये जाते हैं. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है.जय गुरु महाराज.
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