रामचरितमानस सार सटीक / 38
रावण और विभीषण संवाद |
रावण विभीषण संवाद- सुमति कुमति वर्णन
दोहा - काम क्रोध मद लोभ सब , नाथ नरक कर पंथ । सब परिहरि रघुवीर ही, भजहु भजहिँ जेहि सन्त ॥ ८४ ॥
हे नाथ ! काम , क्रोध , अहंकार और लोभ ; ये सब के सब नरक के मार्ग हैं । इन सबों को छोड़कर राम का भजन कीजिए , जिनको सन्त लोग भजते हैं ।
विभीषण की बातें सुनकर रावण क्रोधित हो विभीषण से बोला कि तुम मेरे शत्रु का गुण गाते हो । फिर सभा की ओर देखकर बोला- ' है कोई ! इसे यहाँ से निकालो । ' विभीषण फिर हाथ जोड़कर कहने लगे
सुमति कुमति सबके उर रहहीँ । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥ ५८० ॥ *
हे नाथ ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सद्बुद्धि और कुबुद्धि सबके हृदय में रहती है ।
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥ ५८१ ॥
जहाँ सुबुद्धि रहती है , वहाँ बहुत प्रकार की सम्पत्ति रहती है और जहाँ कुबुद्धि होती है , वहाँ अन्त में विपत्ति आती है ।
विभीषण ने बिना पूछे और भी अनेक हित- विचार रावण को दिए , पर उसका क्रोध बढ़ता ही गया । उसने कहा- ' तू शत्रु का गुण गाता है , जा उसी को नीति सिखा ' यह कह उसने विभीषण को लात मार दी । विभीषण इतने पर भी उसके चरण पकड़कर सविनय धर्मोपदेश करने लगे । यहाँ महादेवजी कहते हैं
उमा सन्त कर इहइ मन्द बड़ाई । करत जो करइ भलाई ॥ ५८२ ॥
विभीषण रावण से बोले कि हे भाई ! तुम मेरे पिता के तुल्य हो । तुमने भले ही मुझे मारा , परन्तु रामजी का भजन करने में तुम्हारी भलाई है । लो , मैं राम के पास जाता हूँ । ऐसा कह अपने मन्त्रियों के सहित आकाश में गए और सबको सुनाकर बोले कि अब मैं राम के पास जाता हूँ , मुझे कोई दोष मत देना । यहाँ महादेवजी कहते हैं -
अस कहि चला विभीषण जबहीं । आयू हीन भये सब तबहीं ॥ ५८३ ॥
ऐसा कहकर विभीषणजी जैसे ही चले , सभी ( राक्षस ) आयुहीन हो गए ।
साधु अवज्ञा तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥ ५८४ ।।
हे भवानी ! साधु पुरुषों का अनादर ( करना ) सम्पूर्ण कल्याण का नाश कर देता है ।
विभीषण आकाश मार्ग से लंका से चलकर रामजी की सेना में आ मिले । सुग्रीव ने उनको एक जगह ठहरा रामजी से कहा कि रावण का भाई विभीषण आपसे मिलने आया है , • परन्तु मेरे मन में आता है कि वह हमलोगों का भेद लेने आया है । अतएव उसे बाँध रखना चाहिए । रामजी ने कहा- ' शरणागत की रक्षा करना मेरा प्रण है । ' और
दोहा- सरनागत कहँ जे तजहिँ , निज अनहित अनुमानि । ते नर पामर पापमय , तिनहिँ बिलोकत हानि ॥ ८५ ॥
जो अपना अनभल अनुमान कर शरण में आए हुए को त्याग देते हैं , वे मनुष्य नीच और पापमय हैं । उपको देखने से हानि होती है । रामजी की आज्ञा पाकर बन्दर लोग विभीषण को आदरपूर्वक रामजी के पास ले गए । विभीषण ने ' त्राहि शरणागत रक्षक ! ' कहकर रामजी को प्रणाम किया । रामजी ने उठकर उनको हृदय से लगा लिया .
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